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________________ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ५४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम ___ उस शुद्ध स्वरूप की अपने हृदय में प्रतिष्ठा तो कीजिए। उससे कुछ मत मांगिये। वह देगा भी नहीं। जो मिलता है, वह माँगना भी नहीं पड़ता। वृक्ष का आश्रय लेने वालों . को छाया स्वयं प्राप्त हो जाती है। वृक्ष के पास छाया की याचना नहीं करनी पड़ती है। ____ अरिहंत की आराधना से आत्मा का वह निष्पाप शुद्ध स्वरूप व्यक्त हो जाता है जो सभी जीवों में विद्यमान है; और सभी भव्य जीव इसे प्राप्त करने के पूर्णाधिकारी हैं। उस शुद्ध स्वरूप के सामने आते ही अपनी उस भूली हुई निधि का स्मरण हो उठता है, जो अनन्तकाल से कर्मों के कारण आवृत है। आराधना करने से आत्मोत्कर्ष की भावना जागृत होती है। इसमें आराध्य की इच्छा शक्ति की आवश्यकता नहीं है। किसी कार्य का कर्ता या कारण होने के लिए यह जरूरी नहीं कि उसके साथ इच्छा, बुद्धि या प्रेरणादि भी हो। निमित्त से, प्रभाव से, . आश्रित रहने से, सम्पर्क में आने से, अप्राप्य की प्राप्ति और आवृत का अनावृत होना सहज हो सकता है। उनके मोहनीय कर्म के सर्वथा अभाव होने से उनमें इच्छा का अस्तित्व ही नहीं होता है और न वे किसी कार्य की आज्ञा या प्रेरणा प्रदान करते हैं परन्तु उनका पुण्य स्मरण, चिन्तन, पूजन, भजन, कीर्तन, आराधन, स्तवनादि से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है, पापकर्म का नाश होता है, पुण्य की वृद्धि और आत्मा की विशुद्धि होती है। इसी का परिणाम प्रगट होता है और परिणति रूप निष्पत्ति बन जाता है। ___ यहाँ तक तो ठीक है; परन्तु अरिहन्त का प्रसन्न होना, आराधक पर अनुग्रह करना, आराधक का अपने प्राप्तव्य में सफल रहना आदि कुछ बातें जैन साधना पद्धति में बड़ा कौतूहल भरा वातावरण पैदा करती हैं। जिनको हम सर्वथा राग-द्वेष से रहित शुद्धात्मा और वीतरागी मानते हैं; उनकी कृपा, अनुग्रह या प्रसन्नता कैसे मानी जाय? जैसे १. तित्थयरा मे पसीयंतु २. तव प्रभावात् ३. त्वत्प्रसादात्३ ४. त्वत्प्रसादैक भूमिम् साधना पक्ष की इस चुनौती को लक्ष्य में रखते हुए कहा है-जो स्तुति करने से संतुष्ट और प्रसन्न होते हैं, वे निंदा करने से अवश्य रुष्ट भी होते होंगे। तो वे वीतराग १. लोगस्स सुतं २. भक्तामर स्तोत्र-गा.८ ३. शक्रस्तव ४. एकीभावस्तोत्र-गा. ८
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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