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५६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
मंत्र के चैतन्यमय हो जाने पर मंत्र शब्दातीत-शब्द से पर अशब्द हो जाता है। रहस्य रह जाता है, जड़ता हट जाती है। जब अशब्द की स्थिति प्रकट होती है उससे पूर्व साधक को शब्द की कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है जो स्थूल उच्चारण से प्रारम्भ होकर शब्दवर्ती सूक्ष्म प्रक्रिया तक पहुँचाती हैं। यही सूक्ष्म प्रक्रिया आगे अशब्द तक पहुँचाती है।
Theosophists के अनुसार शरीर (body) के तीन प्रकार हैं1. Physical body 2. Etheric body
3. Astral body ___ Physical body स्थूल शरीर है, Etheric body सूक्ष्म शरीर है और Astral body अतिसूक्ष्म शरीर है। मंत्र के द्वारा तैजस शरीर जो Astral body है उत्तप्त होता है। उसमें से तेज और ऊर्जाएँ उठती हैं। तैजस शरीर और चेतना में . एकरूपता स्थापित होती है। ऊर्जा कार्मण शरीर रूप मलीन परमाणुओं को दूर करती है। मंत्र जितना बलवान होता है ऊर्जा उतनी तीव्रता से कार्मण शरीर का Control - करती है।
यह एक पद्धति है; मंत्र के द्वारा पहले तैजस् शरीर में स्पंदन होता है। उससे कार्मण के प्रकम्पनों को पकड़े जाते हैं। धीरे-धीरे हम कर्म का संहार करते हुए अप्रकंप याने निर्विकल्प स्थिति में प्रवेश कर सकते हैं। इस निर्विकल्प स्थिति का प्रादुर्भाव परावाणी से होता है।
वाणी के चार प्रकार हैं
१-वैखरी वाणी, २. मध्यमा वाणी, ३. पश्यन्ती वाणी और ४. परा वाणी। ये चारों वाणी अनुक्रम से (एक-एक से) अधिकाधिक बल वाली हैं। . .
१. वैखरी वाणी-परमात्मा सम्बन्धी मंत्र भाष्य जप तथा स्तुति स्तोत्रादि का स्पष्ट उच्चार करने वाली वाणी वैखरी वाणी है।
२. मध्यमा वाणी-इस वाणी में उपांशु जप होता है। जिसमें ओष्ठ और जिह्वा चलती है परन्तु आवाज बाहर सुनाई नहीं देती। इस वाणी में शब्द सिर्फ गुनगुनाये जाते हैं।
३. पश्यन्ती वाणी-मन्त्रों का मानस जप और कायोत्सर्गादि हृदयंगता पश्यन्ती वाणी से होता है।
४. परा वाणी-जब परा वाणी द्वारा जप किया जाता है तब ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकरूपता हो जाती है। इसमें ध्याता अपने आत्मा को परमात्म स्वरूप ही देखने लगता है।