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________________ अरिहंत परम ध्येय ५७ ...................................................... 'पदस्थ ध्यान में प्रथम वैखरी वाणी और मध्यमा वाणी द्वारा स्थूलपद का आलम्बन लेकर बाद में सूक्ष्म पद का पश्यंती और परा वाणी द्वारा आलम्बन लिया जाता है। पद की सूक्ष्म अवस्था के समय चित्त की श्रेष्ठ और सुलीन अवस्था प्राप्त होती है। अतः वहाँ स्थूल विकल्प नहीं आ सकते हैं परन्तु (शुद्ध ज्ञानात्मक) तात्विक सूक्ष्म विमर्श प्राप्त होता है। इस विमर्श को "तात्विक मंत्रदेवता" या मंत्रमय देवता अथवा पदमय देवता कहा जाता है। परमात्मा का स्वरूप अगम अगोचर है; फिर भी ध्यान के माध्यम से परा वाणी और पश्यन्ती वाणी द्वारा महामुनि कुछ अंश से अरिहंत के स्वरूप का अनुभव करते हैं। जप विधान में वाणी का जो स्थूल रूप है वह वैखरी है। मध्यमा में बोला नहीं जाता परन्तु अक्षरात्मक सोचा जाता है। भाषा का बहिर्वर्ती रूप वैखरी और अन्तर्वर्ती रूंप मध्यमा है। मध्यमा के बाद आती है पश्यन्ती। इसमें भाषा से ऊपर उठकर अक्षरों को देखा जाता है। अन्त में परा वाणी है। इसमें समाधि की अवस्था होती है। यह अक्षर से अनक्षरं तक पहुँचने पर प्राप्त होती है। यह निर्विकल्प समाधि की अवस्था होती है। __दूसरी तरह से इसका स्वरूप ऐसे भी बताया जाता है। जो वाणी मुख से बोली जाती है, जिसका उच्चार कानों से सुनाई देता है वह वैखरी वाणी है। जो वाणी आँखों से, संकेत से, मुखाकृति या भावभंगिमा से व्यक्त होती है वह मध्यमा कहलाती है। जो वाणी मन में से निकलती है और मन को ही सुनाई देती है, वह पश्यन्ती है। जो वाणी आकांक्षा, इच्छा, निश्चय, संकल्प, श्राप या वरदानादि रूप होती है और अन्तःकरण से निकलती है वह परा वाणी कहलाती है। ... इन प्रत्येक वाणी के जप के अलग-अलग परिणाम हैं। बाह्य परिणाम में वैखरी चाणी में जप करने से उससे उत्पन्न ध्वनि-तरंगों से शरीर की व्याधियाँ समाप्त होती हैं और चित्त पर जमे स्थूल विकार कम होते हैं। ग्रंथि प्रभाव के अनुसार मध्यमा वाणी के जप से पिच्युटरी ग्रंथि से ९ रसबिन्दुओं का स्राव होता है। पश्यन्ती के जाप से १२ रसबिन्दुओं का स्राव होता है और परा जप से १६ रसबिन्दुओं का नाव होता है। · आंतरिक परिणाम के अनुसार मध्यमा में जप करने से यथाप्रवृत्तिकरण, पश्यन्ती वाणी से अपूर्वकरण और परा वाणी से जीव अनिवृत्तिकरण, ग्रंथिभेद और अपूर्व आत्म-दर्शन उपलब्ध कर सकता है। पदस्थ ध्यान के लिए इष्ट मंत्रों का चुनाव अपनी भावना, रुचि और श्रद्धा के आधार पर किया जा सकता है। यहाँ पर विषयानुसार कुछ विशेष मंत्रों का प्रासंगिक विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। नमस्कार मंत्र स्तोत्र में कहा है जब श्री अरिहंत परमात्मा मोक्ष गये तब “हमारी अनुपस्थिति में इन भव्यात्माओं का कैसे कल्याण होगा (ऐसी करुणा से युक्त होकर), कल्याण के विशेष हेतु स्वयं का “मंत्रात्मक देह" जगत् को देते गए।'' अतः उनकी अनुपस्थिति में भी साधक “अरिहंत' नामक (मंत्रात्मक
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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