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________________ २१४ स्वरूप-दर्शन चारों ओर रक्त वर्ण के पत्र पल्लव पुष्पों आदि से एक योजन व्यापी अशोक वृक्ष होता है। भगवंत के पादतल में पुष्पवृष्टि होती है। अशोकवृक्ष के ऊपर के वातावरण में जहाँ योजनव्यापी दुंदुभि नाद होता है वहाँ परमात्मा के पादतल में योजनव्यापिनी दिव्यध्वनि होती है। प्रकाश की अपेक्षा से समवसरण में चारु रूप वाले भगवंत का एवं तेजोमय भामण्डल का सौम्य और आँखों को आनंददायी प्रकाश सर्वत्र प्रसारित होता है। समवसरण के मध्य में भगवंत का, भामण्डल का, चामरों के मणिमय दंडों का, सिंहासनों के रत्नों का और तीन छत्रों का प्रकाश प्रसारित होता है, तब ऐसा लगता है कि ऐसा समुदित प्रकाश समवसरणं के अतिरिक्त अन्य कहीं भी उपलब्ध. नहीं हो . सकता है। फिर भी समवसरण के अतिरिक्त भी अष्ट महाप्रातिहार्य की यह अनुपम .. अद्वितीय अपूर्व दिव्य भव्य ऐश्वर्य-सम्पन्न परमात्मा की विभूति उनके साथ ही होती है। जिसे देखकर अनेकों भव्य आत्मा इस अद्भुतता पर आश्चर्याविन्त होते हैं। . ___भक्ति से नम्रीभूत देवताओं द्वारा शुभानुबंधी महाप्रतिहार्य की रचना अरिहंत का... समग्र ऐश्वर्य है। अरिहंत प्रातिहार्य लक्ष्मी के दर्शन से भव्यात्मा पवित्र भावों से चिन्तन की गहराई पाते हैं। उदाहरणार्थ-मरुदेवी माता। अष्टापद पर्वत से नीचे उतरते समय • गौतमस्वामी ५00 तापसों को बोध देकर भगवान महावीर के पास ले आते हैं। उस समय प्रभु के प्रातिहार्यों को दूर से देखते ही उन पाँच सौ तापसों को केवलज्ञान हो गया। अतिशय प्रातिहार्य या अतिशयों के बारे में लोगों की वैचारिक धारणा या मान्यता में विविधता पायी जाती है। मानने वाले इसे श्रद्धा से मानते हैं, नहीं मानने वाले इसमें कुछ निष्फल कारणों को खोजते हैं या इसे मात्र परिकल्पना कहकर टालने का प्रयास करते हैं। मान्यता भले ही दो हैं परन्तु इसका समाधान एक ही है। __ हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि सृष्टि का प्रेमपात्र सिर्फ वह ही बनता है जिसने सृष्टि के समस्त प्राणियों से मैत्री की है। अरिहंत भव से पूर्व तीसरे भव में ही जिसने सृष्टि के समस्त जीवों के आत्म-विकास की अनन्य अवस्था की व्यवस्था की भूमिका निर्माण की है। केवलज्ञान होते ही अरिहंत परमात्मा अल्फा कणों के सुपरप्लान्ट बन जाते हैं। उनके समस्त परमाणु पूर्णतः आनन्दमय और प्रसन्नमय हो जाते हैं। ऐसी स्थिति सृष्टि के जीवों का शक्ति के अनुसार उनकी भक्ति करना या परमात्मा के शुभ परमाणुओं से सृष्टि में परिवर्तन होना, लोगों का आनन्दमय होना अत्यन्त साहजिकता है। उनके पवित्र औदारिक देह से आनन्दमय स्रोतों के नावित होने से सृष्टि में शुभत्व की प्रतिष्ठा होना कितना साहजिक और Scientific है, यह कोई भी प्रज्ञाशील प्राणी जान सकता
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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