SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलज्ञान-कल्याणक २१५ है और निःसन्देह मान भी सकता है। अतिशय याने परमात्मा के आनंददायी अल्फाकणों का विस्तार। अतिशय परमात्मा का बाह्य ऐश्वर्य होने पर भी इन्हें “सर्व अतिशयों को परमात्मा की महा सम्पत्ति' मानने का विशेष कारण बाल जीवों पर परम उपकार रूप है। यद्यपि परमात्मा इस बाह्य ऐश्वर्य की अपेक्षा अपने आंतरिक ऐश्वर्य से अनंतगुना अधिक प्रभाव वाले हैं, परन्तु उन्हें समझने की क्षमता किन में संभव हो सकती है? क्योंकि स्वयं गणधर भी प्रभु के सर्वगुणों का वर्णन करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। परमात्मा के आन्तरिक प्रभाव को जानने के लिए तो परमात्मा ही बन जाना पड़ता है अर्थात् स्वयं के अतिरिक्त इसका ओर-छोर कोई नहीं पा सकता। इसी कारण बाह्य ऐश्वर्य जो आँखों देखा सत्य है और देवों द्वारा किया जाने वाला परम तथ्य हमारे आगम, पूर्वाचार्यों आदि द्वारा अतिशयों के रूप में हमें उपलब्ध होता है। ये अतिशय अनन्त होने पर भी यथाशक्ति स्वरूप की स्पष्टता हेतु वे जघन्य चार प्रकार से, मध्यम १२ गुणों से और उत्कृष्ट ३४ अतिशयों से स्पष्ट किये गये हैं। इस प्रकार अरिहंत के चौंतीस अतिशय कहे जाते हैं, किन्तु यह केवल बाल जीवों को अरिहंत का स्वरूप जानने के लिए हैं। वास्तव में अतिशय तो अनंत हैं। जिस प्रकार “निशीथ चूर्णि" में भगवान के १00८ बाह्य लक्षणों को उपलक्षण मानकर सत्वादि अन्तरंग लक्षणों को अनन्त कहा गया है, उसी प्रकार अतिशय परिमित होने पर भी उन्हें अनन्त कहा जा सकता है। इसमें कोई शास्त्र विरोध नहीं है। जिन गुणों द्वारा अरिहंत परमात्मा समस्त जगत् की अपेक्षा अतिशायी प्रतिभासित होते हैं, उन गुणों को अतिशय कहा जाता है। अर्थात् जगत् में अन्य किसी में इनसे अधिक विशेष गुण, रूप या वैभव नहीं पाया जाता है। अतः अतिशय अतिशय ही है, जो अन्यों की अपेक्षा परमात्मा को विशेष घोषित करते हैं। फिर चाहे वे जन्मकृत हों, कर्मक्षय से हों, या देवकृत हों। . कभी प्रश्न हो सकता है कि जन्म और कर्मक्षय वाले अतिशय अरिहंत में ही उपलब्ध हों, परंतु देवकृत अतिशय अन्य में क्यों नहीं हो सकते? देव स्वेच्छा से यह प्रयोग अन्यत्र क्यों नहीं कर सकते हैं ? इसका उचित समाधान करते हुए कहा गया है कि “जगत् के सर्वजीव एकत्र होकर स्वयं की सर्व शक्ति द्वारा भगवंत के पादांगुष्ठ जितना ही रूप विकुर्वित करें तो भी भगवंत के अंगुष्ठ के सूर्यवत् तेज की तुलना में देवविकुर्वित रूप जानने की तैयारी में हों ऐसे अंगारे जैसा दिखता है।" परमात्मा की उपस्थिति में समवसरण के भीतर तीन दिशा में तीन रूप (चतुर्मुखता) वाले अतिशय में देव इतने सफल रहते हैं कि अनजान व्यक्ति इसका १. आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीय टीका सहित गा. ५६९
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy