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२१६ स्वरूप-दर्शन निर्णय करने में असमर्थ होते हैं कि इनमें वास्तविक परमात्मा कौन से हैं और उनके रूप कौन से हैं।
इस पर से इतना स्पष्ट हुआ कि उनकी उपस्थिति के अतिरिक्त अवसर पर देव अपने प्रयोग में निष्फल रहते हैं। अतः यह स्पष्ट होता है कि देवों की प्रस्तुत प्रवृत्ति में भी परमात्मा ही विशेष कारण रूप हैं और वह महत्वपूर्ण कारण है उनका तीर्थंकर नाम कर्म। ____ आवश्यक नियुक्ति की टीका में स्पष्ट कहा है-"तप्पभावो" अर्थात् उनके प्रभाव से ऐसा होता है। अतिशय शब्द प्राकृत के अइसेस अथवा संस्कृत के अतिशेष अथवा अतिशेषक शब्द से बना है। समवायांग सूत्र में कहा है-चौतीसं बुद्धाइसेसा पण्णत्ताअतिशय शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है-“शेषण्यतिक्रान्तं सातिशयम्" अर्थात् शेष का जो अतिक्रमण करता है वह अतिशय कहलाता है। संस्कृत के अतिशेष का अर्थ अर्थ अतिशय ही होता है। वैसे अतिशय शब्द के श्रेष्ठता, उत्तमता, महिमा, प्रभाव, बहत, अत्यन्त, चमत्कार आदि कई अर्थ होते हैं. और अतिशेष शब्द के भी महिमा. प्रभाव, आध्यात्मिक सामर्थ्य आदि अर्थ होते हैं। सर्व अतिशयों के मूलरूप चार अतिशय हैं। इन्हें मूलातिशय भी कहते हैं। वे हैं
(१) अपायापगम अतिशय, (२) ज्ञानातिशय, (३) पूजातिशय और (४) यागातिशय-(वचनातिशय) अपायापगमातिशय
रागादि दोष आत्म-विकास में बाधक होने से उन्हें अपाय कहते हैं। अपगम अर्थात् क्षय। परमात्मा ने रागादि रोगों का क्षय कर अरिहंत पद प्राप्त किया है। विज, अन्तराय, मोहादि को भी अपाय कहते हैं। अठारह दोषों को अपाय मानकर उनका भी निवारण अपायापगम अतिशय है। मोहनीय के कारणभूत राग का सर्वथा नाश कर वीतराग और जिन कहलाते हैं। इसी कारण उनके इस अद्वितीय गुण के मूल रूप को अपायापगम अतिशय कहते हैं। ज्ञानातिशय
केवलज्ञान की अनन्ततारूप सामर्थ्य से लोकालोक के स्वभाव एवं प्राणिमात्र के हितों के पूर्ण ज्ञाता होने से भगवान ज्ञानातिशय से युक्त कहलाते हैं। इस ज्ञानातिशय से वे लोक और अलोक के सम्पूर्ण स्वभाव का अवलोकन करते हैं। आचारांग सूत्र में कहा है-“से भगवं अरह जिणे केवली सव्वन्नू सव्वभाव दरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणई, तं-आगई गई ठिई चवणं उववायं भुत्तं पीयं कउँ पडिसेवियं आविकम्म रहोकम्म लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरइ।