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________________ केवलज्ञान-कल्याणक १९५ तृतीय प्राकार का आन्तरिक स्वरूप समवसरण का बाह्य स्वरूप एवं विश्लेषण तथा अन्य दो प्राकारों का आन्तरिक स्वरूप विवेचित हो चुका है। अब यहाँ महत्वपूर्ण तृतीय प्राकार के भीतर की अद्भुतता का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। इस तृतीय प्राकार का आभ्यन्तर भाग ही सम्पूर्ण समवसरण की सार्थकता एवं रहस्य का मूल कारण है। इसको न समझते हुए केवल समवसरण के बाह्य स्वरूप का वर्णन पढ़ना निरर्थक है, क्योंकि भक्ति से विवश देवकृत यह परमात्मा की बाह्य ऐश्वर्य-सम्पत्ति से अनन्तगुनी अधिक मूल्यवान परमात्मा की आन्तरिक सम्पत्ति है। ऐसे अनन्य महा आन्तरिक ऐश्वर्य के स्वामी इस प्राकार में विराजकर भव्यजीवों को उद्बोधन करते हैं। इस रहस्य को यदि किसी प्रकार अप्रधान मान लिया जाय तो हम परमार्थ से बहुत दूर निकल जायेंगे। हम समवसरण आदि को इसलिए इतना अधिक महत्व नहीं देते कि यह देवों एवं इन्द्रों द्वारा निर्मित होता है। यह तो उनकी भक्ति का निर्माण-परिणाम है। हमें उससे क्या ? फिर भी परमात्मा के मिलन में रहस्य रूप हमारी परमभक्ति में सहायक रूप होने से ही हम इसके स्वरूप-दर्शन, विवेचन या ध्यान को अपना विषय बनाते हुए इसे अपना मुख्य ध्येय मान लेते हैं। अच्छा तो चलो अब परमात्मा के मिलन-स्थान रूप तृतीय प्राकार में.................| यहाँ हैं हमारे परम कृपानिधान, रागद्वेष विजेता परमात्मा। यहाँ है मोक्षमार्गदर्शिनी भगवद्वाणी। . सुवर्ण-प्राकार में रहे हुए रत्नमय वप्र के ५000 सोपानों को पार कर लेने पर हम तृतीय वप्र का भव्य भूतल पाते हैं, परम उपकारी, मोक्षमार्ग-दर्शक परम प्रभु को पाते हैं। : इस वप्र के समभूतल १ कोश ६०० धनुष के मध्य में एक मणिरत्नमय पीठ होता है, उसकी ऊँचाई जिनेश्वर के देहप्रमाण होती है। इसके चार द्वार होते हैं और चारों दिशा में तीन-तीन सोपान होते हैं। इसकी लम्बाई और चौड़ाई २00 धनुष होती है, और यह पृथ्वीतल से ढाई कोस ऊँचा है। . उस पीठ के मध्य भाग में उत्तम ऐसा अशोक वृक्ष होता है, यह विस्तीर्ण शाखा वाला और गाढ़ छाया वाला तथा एक योजन विस्तार वाला है। जिनेश्वर के देहमान से यह बारहगुना ऊँचा होता है और चारों ओर से पुष्प, (तीन) छत्र, केतु, पताका और तोरणों से संयुक्त होता है। इस अशोक वृक्ष के ऊपर एक और वृक्ष रखा जाता है, जिसका नाम है चैत्यवृक्ष। चैत्यवृक्ष अर्थात् वैसा वृक्ष जिसके नीचे परमात्मा को केवल ज्ञान हुआ होता है। इस चैत्यवृक्ष को देवविकुर्वित अशोक वृक्ष के ऊपर निक्षिप्त किया जाता है। ये चैत्यवृक्ष सभी जिनवरों के भिन्न-भिन्न होते हैं। ___ यहाँ पर कुछ मान्यता ऐसी भी है कि वैसा नहीं परन्तु वही वृक्ष जिसके नीचे केवलज्ञान हुआ हो उसे ही अशोकवृक्ष पर रखा जाता है परंतु यह अनुचित हैं। ऐसा
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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