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१९४ स्वरूप-दर्शन
प्रथम प्राकार में सुवर्ण से निर्मित गोपुर और रल से निर्मित सुशोभित भवन होते हैं। उससे आगे उत्तम तीर्थगंधोदक नदी के रूप में दूसरे प्राकार भूमि में बह रहा है। अत्यंत मधुर सुगंध से युक्त फूल का बगीचा तीसरे प्राकार के भूमितल पर मौजूद है। चौथी प्राकार भूमि में उद्यान, वन, चैत्यवृक्ष आदि मौजूद हैं। पाँचवीं भूमि में हाथी, अश्व, बैल आदि भव्य तिर्यंच प्राणी रहते हैं। छठी वेदिका में कल्पवृक्ष, सिद्धवृक्ष आदि सुशोभित हो रहे हैं। सातवीं वेदिका जिनगीत, वाद्य, नृत्य आदि के द्वारा सुशोभित हो रही है। आठवीं वेदिका में मुनिगण, देवगण, मनुष्य आदि भव्य विराजमान हैं। द्वारपाल से रहित नौवें प्राकार में तीन पीठ हैं उस पर परमात्मा विराजित हैं। उनमें . एक पीठ वैडूर्यरत्न के द्वारा निर्मित है, उसके ऊपर सुवर्ण द्वारा निर्मित दूसरा पीठ है। .. उसके ऊपर अनेक रत्नों से निर्मित तीसरा पीठ है। इस प्रकार रत्नत्रय के समान एक के ऊपर एक तीन पीठ हैं। __ दूर से ही मानस्तम्भों को देखने से मान से युक्त मिथ्यादृष्टि लोग अभिमान से . रहित हो जाते हैं, इसलिए इनको "मानस्तम्भ" कहते हैं। इन मानस्तम्भों की ऊँचाई : अपने-अपने तीर्थंकर के शरीर की ऊँचाई से बारह गुनी होती है। प्रत्येक मानस्तम्भ के . मूलभाग स्फटिकमणि से निर्मित वृत्ताकार होते हैं। इनके उज्ज्वल वैडूर्य मणिमय उपरिम भाग चारों ओर से चामर, घंटा, किंकिणी, रत्नहार एवं ध्वजा इत्यादिकों से विभूषित होते हैं।
सब समवसरणों में तीन कोटों के बाहर चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में क्रम से पूर्वादिक विधि के आश्रित द्रह (वापिकाएँ) होती हैं। पूर्व मानस्तम्भ के पूर्वादिक भागों में क्रम से नन्दोत्तरा, नन्दा, नन्दिमती और नन्दिघोषा नामक चार द्रह होते हैं। दक्षिण मानस्तम्भ के आश्रित पूर्वादिक भागों में क्रमशः विजया, वैजयन्ता, जयन्ता और अपराजिता नामक चार द्रह होते हैं। पश्चिम मानस्तम्भ के आश्रित पूर्वादिक भागों में क्रम से अशोका, सुप्रतिबुद्धा (सुप्रसिद्धा या सुप्रबुद्धा), कुमुदा और पुण्डरीका नामक चार द्रह होते हैं। उत्तर मानस्तम्भ के आश्रित पूर्यादिक भागों में क्रम से हृदयानन्दा, महानन्दा, सुप्रतिबुद्धा और प्रभंकरा नामक चार द्रह होते हैं। ये द्रह समचतुष्कोण, कमलादिक से संयुक्त, टोत्कीर्ण और वेदिका, चार तोरण एवं रत्नमालाओं से रमणीय होते हैं। सर्व द्रहों के चारों तटों में से प्रत्येक तट पर जल क्रीड़ा के योग्य दिव्य द्रव्यों से परिपूर्ण मणिमय सोपान होते हैं। इन ग्रहों में भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी देव क्रीड़ा में प्रवृत्त होते हैं, तथा वे मनुष्य एवं किन्नर युगलों के कुंकुमपंक से पीतवर्ण के लगते हैं। प्रत्येक कमलखंड अर्थात् द्रह के आश्रित निर्मल जल से परिपूर्ण दो-दो कुण्ड होते हैं, जिनमें देव, मनुष्य और तिर्यच अपने पैरों की धूलि को धोया करते हैं। वापिकाओं का स्थान एवं स्वरूप श्वेताम्बर परम्परा से बिल्कुल भिन्न है।