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१९६ स्वरूप-दर्शन
मान लेने पर कई निरुत्तर प्रश्न सामने आते हैं। क्या इसे देव रखते हैं ?.या यह अपने आप ऊपर चढ़ जाता है ? ऐसा तो नहीं हो सकता। यदि देव या मानव रखते हैं तो क्या इसे जड़ से उखाड़ लिया जाता होगा ? ऐसा अनुचित व्यवहार भी कैसे हो सकता है ? पूजा या भक्ति का यह भी क्या तरीका होता है ? जिन्होंने समस्त सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों के जीवन और जीने के अधिकार पर सोचा विचारा और परम मैत्री से अभय कर परमात्मा बने उनके ज्ञान की पूजा किसी का प्राण लेकर कैसे की जा सकती है ? मेरी मान्यता के अनुसार देव-समूह वैसा ही वृक्ष बनाकर प्रतीक के रूप में उसे अशोकवृक्ष पर रखकर उस वनस्पति-वृक्ष का भी बहुमान करते हैं, जिसके नीचे प्रभु की पुण्यप्रभा पृथ्वी पर प्रकट हुई है। ___ अशोकवृक्ष के नीचे मूल में अरिहंत का देवच्छंद (उपदेश) देने का स्थान होता है। वहाँ चार दिशाओं में चार सिंहासन होते हैं। वे सिंहासन उद्योत वाले रनों से जड़े हुए
और अनेक हीरों से युक्त होते हैं। उन सिंहासनों के आगे रत्नों की ज्योति से. प्रकाशमान एक-एक पादपीठ होते हैं। ऊपर तीन छत्र, आसपास दो चामर, सामने सुवर्णकमल के ऊपर एक-एक धर्मचक्र होता है। चारों दिशाओं में चार महाध्वज होते
___ ऐसे भव्य समवसरण के दिव्य तृतीय वप्र में, देवों द्वारा विकुर्वित सुवर्ण-पद्म पर पादन्यास करते हुए परमात्मा पूर्व द्वार से प्रवेश करते हैं। सुवर्ण कमल ___ जत्थ भगवतो पादा तत्थ देवा सत्त पउमाणि सहस्सपत्ताणि णवणीतफासाणि विउव्यति, मग्गतो तिन्नि पुरओ तिनि एग पायाणिक्कमे, एगे भणति, मग्गतो सत्त पउमणि दीसंति, जत्थ पाओ कीरति ताहे अन्नं दीसति, मग्गओ सत्तं दीसति, मग्गओ सत्त दो पादेसु एवं णव-देवों द्वारा विकुर्वित (परिकल्पित) परमात्मा के आगे चलते हुए, सुवर्ण-कमल पर पादन्यास करते हुए परमात्मा समवसरण में प्रवेश करते हैं। आवश्यक चूर्णि के उपरोक्त पाठ के अनुसार पद्मों की संख्या सात और नव दोनों हो सकती हैं क्योंकि आगे तीन कमल, पीछे तीन कमल तथा एक पर भगवान का चरण (इस प्रकार सात और दूसरे प्रकार से दो पर पादन्यास और सात कमलों का पीछे रहना इस प्रकार नव कमल।) यद्यपि पीछे वाला मन्तव्य चूर्णि के अनन्तर साहित्य में अधिक मान्य किया गया है। इसी के अनुसार हेमचन्द्राचार्य कहते हैं-प्रभु के आगमन के समय देव सुवर्ण के नव कमल बनाकर क्रमशः प्रभु के आगे रखने लगे। उनमें दो-दो कमलों पर स्वामी चरण न्यास करने लगे और जैसे ही परमात्मा के चरण अगले कमलों पर पड़ते हैं, वैसे ही देवता पीछे वाले कमलों को आगे कर देते हैं।
केवलज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् अरिहंत परमात्मा के चरण भूमि को स्पर्शते ही नहीं हैं और इसलिए देवता ऐसे अनुपम दिव्य पद्मों की विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा