________________
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
१८८ स्वरूप-दर्शन हैं। १९२ अंगुल के दो धनुष होते हैं, अतः कुल २00 धनुष होते हैं। इन्हें ऊपर के ३ कोश १८०० धनुष प्रतर विस्तार में मिला देने से २000 धनुष होते हैं और ' २000 धनुष का एक कोश होता है। इस प्रकार कुल विस्तार चार कोश अर्थात् एक योजन का हुआ। अब रहे प्रथम प्राकार के सोपान। ये १० हजार सोपान समवसरण के बाह्य भाग में विस्तृत हैं। इस नाप का परिमाण इस प्रकार है।
२४ अंगुल = १ हाथ, ९६ अंगुल = १ धनुष
४ हाथ = १ धनुष, २०00 धनुष = १ कोश
४ कोश = १ योजन। दोनों पार्श्व के संयोग से लंबाई और चौड़ाई का नाप बताते हुए काललोक प्रकाश में कहा है-“अरिहंत के सिंहासन के नीचे के भू-भाग से एक पार्श्व पृथ्वी, बाह्य गढ़ के बाहर के भागपर्यन्त दो कोश भूतल होता है। इस प्रकार चारों दिशा में दो-दो पार्श्व का संयोग करने से लम्बाई और चौड़ाई चार कोश अर्थात् एक योजन प्रमाण होती है। . बाह्य सोपान के पर्यन्त भाग तक का भूतल जिनेश्वर के अधस्थ महीतल से सवातीन कोश होता है। वह इस प्रकार दश हजार सोपान के २५०० धनुष = उसका सवा कोश उपरोक्त एक भाग वाले दो कोश में मिलाने से होता है। इस प्रकार यह समवसरण चारों तरफ के सोपानों से अधिकाधिक ऊँचा है, और इसकी कुल ऊँचाई सवा तीन कोश अर्थात् एक योजन में ७५ धनुष कम इस प्रकार होती है। __ अब इसका परिधि मान बताते हैं-रत्नमय प्राकार की परिधि एक योजन और ४४३ धनुष में कुछ कम होती है। सुवर्ण के प्राकार की परिधि दो योजन, ८६५ धनुष
और दो हाथ में तीन अंगुल कम (४५ अंगुल) होती है। रजत के प्राकार की परिधि तीन योजन, १३३३ धनुष, एक हाथ और आठ अंगुल होती है। एक योजन के समवसरण की परिधि (परिमंडलाकार-वृत्ताकार-रेखा-नाप) तीन योजन १२९८ धनुष से कुछ अधिक होती है।
पद्मानंद महाकाव्य में अंगुल का प्रमाण आत्मांगुल से गिनने का कहा है। आत्मांगुल का अभिप्राय है उस काल और उस क्षेत्र के मनुष्यों की अंगुली। चतुष्कोण समवसरण
वृत्त समवसरण की भाँति चतुष्कोण (चौरस) समवसरण भी देवेन्द्रों द्वारा निर्मित एवं अद्भुत होता है। वृत्त समवसरण की तरह इसमें तीन प्राकारादि सब वैसा ही होता है, सिर्फ आकार चौरस और इसी कारण प्रतर-दीवालादि के नाप में अन्तर पाया जाता
समवसरणस्तव में इस समवसरण का वर्णन करते हुए कहा है-प्रत्येक दीवालें
१. गाथा-६ और उसकी अवचूरि-पत्र-४