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केवलज्ञान-कल्याणक १८९
१00 धनुष प्रमाण होती हैं। प्रथम और द्वितीय वप्र के मध्य का अन्तर डेढ़ कोश अर्थात् १ कोश और १000 धनुष। द्वितीय और तृतीय प्राकार की दीवालों का अन्तर कुल मिलाकर एक कोश होता है और तृतीय प्राकार के मध्यभाग का अन्तर वृत्त समवसरण की तरह १ कोश ६०० धनुष प्रमाण होता है।
अवचूरि में इसे अधिक स्पष्ट किया गया है। चतुष्कोण समवसरण में बाह्य थप के प्राकार की दीवालें योजन मध्य में नहीं गिनने से बाह्य और मध्य अर्थात् रजत् और सुवर्ण के प्राकार का अन्तर १000 धनुष होता है। अवचूरिकार का यह मन्तव्य मूलपाठ से अलग पड़ता है। स्तोत्रकार ने यह द्वितीय और तृतीय प्राकार (स्वर्णमय
और रत्नमय) के बीच माना है। अवचूरिकार ने प्रथम का अन्तर द्वितीय में और द्वितीय का. प्रथम में माना है।
द्वितीय वप्र की दीवारें १00 धनुष प्रमाण हैं। द्वितीय और तृतीय प्राकार का अन्तर १५00 धनुष होता है।
तृतीय प्राकार की दीवारें १०० धनुष प्रमाण हैं। इस वप्र से १३00 धनुष आगे . मध्य पीठ हैं। - इस प्रकार मिलकर कुल ४000 धनुष होते हैं। उसके दो कोश हुए इस प्राकार दोनों ओर का मिलकर ४ कोश अर्थात् एक योजन का यह चतुष्कोण समवसरण हुआ। ___ अवचूरि के प्रस्तुत पाठ का मन्तव्य यह है कि चतुष्कोण समवसरण में प्रत्येक प्राकार की दीवालें यद्यपि १00 धनुष प्रमाण हैं; परंतु प्रथम रजत प्राकार की दीवालों को योजन के मध्य में न गिनते हुए बाहर गिनी हैं। वृत्त समवसरण में रजत प्राकार के सिर्फ सोपान ही बाहर गिने थे परन्तु यहाँ तो इसमें दीवालें भी बाहर गिनी जाती हैं। यह इस प्रकार हुआ
प्रथम प्राकार - मूल विस्तार - १000 धनुष द्वितीय प्राकार - दीवाल
- १00 धनुष - मूल विस्तार - १५00 धनुष - तृतीय प्राकार - दीवाल
- १00 धनुष - मूल विस्तार - १३00 धनुष
कुल - ४000 धनुष = २ कोश अब प्रश्न यह होता है-प्रथम प्राकार का मूल विस्तार १000 धनुष का है उसमें द्वितीय प्राकार के एक हस्त प्रमाण वाले १२५० धनुष प्रमाण-विस्तार में (वृत्त की गिनती) रहने वाले ५000 सोपान और प्रतर दोनों कैसे समा सकते हैं ?