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________________ ...................................................... २४६ स्वरूप-दर्शन ___ इससे पूर्वकाल में प्रख्यात पर पश्चाद्वर्ती काल में विलुप्त एक परम्परा का आभास होता है कि तीर्थंकरों के जो गणधर होते हैं वे अपने पूर्वभव में एक विशिष्ट प्रकार की उच्चतम साधना से गणधर नाम कर्म का उपार्जन करते हैं। चिन्तयत्येवमेवैतत्, स्वजनादिगतं तु यः । तथाऽनुष्ठानतः सो पि, धीमान् गणधरो भवेत् ॥ अर्थात् प्रशस्त बुद्धिवान् आत्मा स्वयं के स्वजन, मित्र, देशबन्धु आदि के लिए ही भवतारिणी भावरूप परम बोधि का चिन्तवन करे तथा तदनुरूप परोपकार रूप अनुष्ठान का सेवन करे तो वह देव-दानव-मानवादि में महामहिमावान् गणधर पद-. तीर्थंकर देव के मुख्य शिष्य का कर्म उपार्जित करते हैं। गणधर वही हो सकते हैं (१) जिन्होंने औत्पातिकी आदि विशिष्ट बुद्धि आत्मसात् की हो। (२) जिनकी आत्मा में अरिहंत प्रभु द्वारा प्रथम समवसरण में ही बताए गए तीन मातृका पद (मूलभूत तीन पद-त्रिपदी) को सुनकर प्रधोत अर्थात् उत्कट प्रकाश प्रवर्तित होता हो। (३) इससे प्रद्योत के विषयभूत जीव, अजीव इत्यादि नव तत्वों में समाविष्ट होने वाले समस्त अभीप्सित (शब्द से बताया जा सके ऐसे) पदार्थों का जिन्हें दर्शन हुआ है, विशिष्ट बोध हुआ है, तथा (४) इसी से जो तत्काल सकल तुस्कन्ध अर्थात् द्वादशांग आगम की रचना करने वाले बनते हैं, वे गणधर कहे जाते हैं। तीर्थ और तीर्थकर __ "तीर्थंकर" शब्द जैन साहित्य का मुख्य पारिभाषिक शब्द है। यह शब्द कब और किस समय प्रचलित हुआ यह कहना अत्यधिक कठिन है। वर्तमान इतिहास से इसकी आदि नहीं ढूँढ़ी जा सकती। निस्सन्देह यह शब्द उपलब्ध इतिहास से भी बहुत पहले प्राग् ऐतिहासिक काल में भी प्रचलित रहा है। बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलों पर "तीर्थंकर" शब्द व्यवहृत हुआ है। सामञफल सुत्त में छः तीर्थंकरों का उल्लेख किया है। किन्तु यह स्पष्ट है कि जैन साहित्य की तरह मुख्य रूप से यह शब्द वहां प्रचलित नहीं रहा है। कुछ ही स्थलों पर इसका उल्लेख मात्र हुआ है। जब कि जैन साहित्य में इस शब्द का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। चतुर्विंशतिस्तव और शक्रस्तव में तीर्थंकर के गुणों का जो उत्कीर्तन किया गया है, उसे पढ़कर साधक का हृदय श्रद्धा से नत हो जाता है। ___ तीर्थ की स्थापना करने से ही अरिहंत परमात्मा तीर्थंकर कहलाते हैं-"तीर्थ करोतीति तीर्थंकरः”।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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