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________________ केवलज्ञान-कल्याणक २४७ तीर्थंकर शब्द की व्याख्या करते हुए भद्रबाहु स्वामी कहते हैं अणुलोमहेउतच्छीया य जे भावतित्थमेयं तु । कुव्वति पगासंति ते तित्थयरा हियत्थकरा ॥ उपरोक्त गाथा में हेतुता, तत्शीलता और अनुलोमता ये तीन महत्वपूर्ण एवं तीर्थंकर भाव सिद्धि के कारण बतलाये हैं। "हेतु" का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि श्रेष्ठ धर्म का निरूपण ही तीर्थंकर का लक्ष्य है, क्योंकि “कृञ्" धातु हेतु, ताशील्य और अनुलोम के अर्थों में प्रयुक्त होता है, इसीलिए तीर्थंकर भी ताशील्य भाव वाले होते हुए भी अर्थात् कृतार्थ समर्थ एवं शक्तिमान होकर भी तीर्थंकर नामकर्म के उदय से समग्र प्राणियों के ऊपर अनुकंपावान बनकर सद्धर्म तीर्थ की स्थापना करते हैं। अनुलोम्य शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि-स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, स्थविर, जिनकल्पी आदि के अनुरूप तथा उत्सर्ग अपवाद से देशना का दायित्व निभाने वाले तीर्थकर होते हैं। सभी प्राणियों के सर्वथा हेतु से, तशीलता से और अनुकूलता से हितकारी होने वाले तीर्थंकर कहलाते हैं। ये तीर्थंकर केवल तीर्थ के स्थापक ही नहीं बनते हैं अपितु गुणों से भाव तीर्थ को प्रकाशित भी करते रहते हैं। हेतु" शब्द, का अर्थ कारण है तो तीर्थंकर किस कारण से तीर्थ की प्ररूपणा करते हैं ? इसका एक ही उत्तर टीकाकार देते हैं-सद्धर्म तीर्थंकरणहेतवः ।" अर्थात् संसार में समस्त प्राणियों का श्रेष्ठ आचरण हो-इसी आशय को लेकर सद्धर्म तीर्थ की महत्ता प्रकटाते हैं और स्थापित करते हैं। • “तशीलता" शब्द का अर्थ यह है कि जो कुछ कह रहे हैं वह कर रहे हैं, अर्थात् कथनी और करनी में जिनकी एकता है, ऐसे भाव से भव्य बने हुए का अर्थ है तत्शील, इसलिए तीर्थंकर वही कहते हैं जो खुद करते हैं। __“अनुलोम" शब्द का अर्थ होता है अनुकूल। किसी भी प्राणी के प्रति विरोधी वचन का कभी भी व्यवहार करना उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं होता है। तीर्थंकर हितार्थंकर होते हैं, सभी प्राणियों का किस में हित निहित है इसका यथार्थ बोध तीर्थंकरों को होता है। हित शब्द का एक अर्थ मोक्ष भी होता है। तीर्थंकर वही हैं जो हितकारी और मोक्षकारी वाणी का निरूपण करते हैं। इसलिए तीर्थंकर हितार्थकर भी है; जो कर्ता भी है, प्रकाशक भी है, पुनीत भी है और प्रवक्ता भी है; साथ में परात्परब्रह्म का पूर्ण अधिष्ठान भी है। जो तीर्थ का कर्ता या निर्माता होता है वह तीर्थंकर कहलाता है। जैन परिभाषा के अनुसार तीर्थ शब्द का अर्थ-धर्म शासन है। जो संसार समुद्र से पार करने वाले धर्म तीर्थ की संस्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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