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२४८ स्वरूप-दर्शन और अपरिग्रह ये धर्म हैं। इस धर्म को धारण करने वाले श्रमण-श्रमणी, श्रावक और श्राविकाएं हैं। इस चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा गया है। इस तीर्थ की जो स्थापना करते हैं उन विशिष्ट व्यक्तियों को तीर्थंकर कहा जाता है। ___ गणधर श्री गौतम स्वामीजी ने एक बार परमात्मा महावीर से यह प्रश्न किया कि "हे भगवन् ! तीर्थ कौन है? तीर्थ तीर्थ है, या तीर्थकर तीर्थ है?" प्रभु ने उत्तर देते . हुए कहा कि “गौतम ! अरिहंत तो अवश्य तीर्थ करने वाले हैं, और तीर्थ है साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप संघ।" ___ संस्कृत साहित्य में तीर्थ शब्द "घाट" के लिए भी व्यवहृत हुआ है। जो घाट के... निर्माता हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं। सरिता को पार करने के लिए. घाट की कितनी उपयोगिता है, यह प्रत्येक अनुभवी व्यक्ति जानता है। संसार रूपी एक महान नदी है।. उसमें कहीं पर क्रोध के मगरमच्छ मुँह फाड़े हैं। कहीं पर मान की मछलियाँ उछल . रही हैं। कहीं पर माया के जहरीले साँप (फकार मार रहे हैं तो कहीं पर लोभ के भंवर हैं। इन सभी को पार करना कठिन है। साधारण साधक विकारों के भंवर में फंस जाते हैं। कषाय के मगर उन्हें निगल जाते हैं। अनंत दया के अवतार तीर्थंकर प्रभु ने साधकों की सुविधा के लिए धर्म का घाट बनाया, अणुव्रत और महाव्रतों की निश्चित । नौका प्रस्तुत की। जिससे प्रत्येक साधक इस संसार रूपी भयंकर सागर को पार कर सकता है।
तीर्थ का एक अर्थ-पुल भी है। चाहे जितनी बड़ी से बड़ी नदी को पार करने के लिए धर्मशासन अथवा साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका रूपी संघ-पुल का निर्माण किया। साधक अपनी शक्ति व भक्ति के अनुसार इस पुल पर चढ़कर संसार को पार कर सकता है। धार्मिक साधना के द्वारा अपने जीवन को पावन बना सकता है। तीर्थंकरों के शासन काल में हजारों लाखों व्यक्ति आध्यात्मिक साधना कर जीवन को परम पवित्र बनाकर मुक्त होते हैं। ___ यह एक शाश्वत नियम है, कि सभी तीर्थंकर केवलज्ञान की उपलब्धि होते ही उसी दिन धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। प्रथम देशना के पश्चात् तत्काल ही वे तीर्थ की स्थापना करते हैं। कभी-कभी इस नियम का अपवाद भी माना है। जैसे श्रमण भगवान महावीर ने केवलज्ञान की प्राप्ति के दूसरे दिन धर्मतीर्थ की स्थापना की।
केवलज्ञान की उपलब्धि तथा तीर्थ प्रवर्तन के बीच काल का व्यवधान तो दोनों परम्पराओं में माना गया है परन्तु यह व्यवधान यहां श्वेताम्बर परम्परा में एक दिन का माना गया है वहां दिगम्बर परम्परा के मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र कृत "गौतम-चरित्र" नामक ग्रंथ में केवल ३ घण्टों का और अन्य कुछ ग्रन्थों में ६६ दिनों के व्यवधान का उल्लेख उपलब्ध होता है।