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१६६ स्वरूप-दर्शन साथ चलने वाले लोग परमात्मा की भावी कुशलता, सफलता, कल्याणमयता एवं मांगल्य की सद्भावना करते हुए उनके पास एवं पीछे पैदल चलते हैं। प्रव्रज्या-विधि-(वस्त्राभूषण त्याग)
इस प्रकार महोत्सव पूर्वक उद्यान में आकर अशोकादि वृक्ष के नीचे थोड़ी सी हस्त प्रमाण ऊँची भूमि पर भगवान की शिबिका को स्थापित करते हैं (ठहरा देते हैं)। तब भगवान उसमें से शनैः शनैः नीचे उतरते हैं और सर्व आभरणालंकार का परित्याग करते हैं। आचारांग सूत्र के अनुसार इन आभरण एवं अलंकारों को उनके (भगवान के) चरणों में बैठकर वैश्रमण देव भक्ति पूर्वक हंस के समान श्वेत वस्त्र में स्थापन.. करते हैं। ज्ञाता सूत्र, महावीर चरित्र आदि चरित्र ग्रन्थों में ऐसा कहीं भी उल्लेख न होकर अरिहंत परमात्मा की माता तथा अन्य कुल वृद्धा द्वारा ग्रहण करने का उल्लेख. .
दीक्षा के अवसर पर इन्द्र अरिहंत के बाँये स्कन्ध पर देवदुष्य वस्त्र डालते हैं। . यहाँ पर प्रश्न होता है कि क्या अरिहंत इस वस्त्र को ग्रहण करते हैं ? क्योंकि सांसारिक सर्व वस्त्राभूषणों का त्याग करने वाले परमात्मा देवप्रदत्त उस देवदुष्य को कैसे ग्रहण करते हैं ? आचारांग के अन्तर्गत इसका अप्रत्यक्ष समाधान प्रस्तुत किया गया है। यहाँ इन्द्र ने जब देवदुष्य अर्पण किया तब भगवान महावीर की मनोभावना का यथायोग्य दिग्दर्शन कराते हुए कहा है कि "मैं इस वस्त्र से हेमन्तकाल में शरीर को ढक लूँगा"। इस आशय से भगवान ने वस्त्र ग्रहण नहीं किया।
वस्त्रग्रहण करने के तीन कारण होते हैं(१) हेमन्त (सर्दी) में शीत से बचने के लिए, (२) लज्जा ढकने के लिए और (३) जुगुप्सा को जीतने का सामर्थ्य न हो तो।
भगवान् ने इन तीनों कारणों से वस्त्र को स्वीकार नहीं किया। वे समस्त परीषहों को जीतने में समर्थ थे। अतः उन्होंने वह वस्त्र अपने उपयोग के लिए स्वीकार नहीं किया, परन्तु पूर्व तीर्थंकरों द्वारा आचरित परम्परा को निभाने के लिए उन्होंने देवदुष्य
को स्वीकार किया। ____ “अनुधर्मिता" शब्द का अर्थ चूर्णि में गतानुगत किया है। इसका अभिप्राय यह है कि भगवान ने दीक्षा के समय एक वस्त्र रखने की परम्परा का पालन किया। चूर्णि में इसका दूसरा अर्थ "अनुकालधम्म" भी दिया गया है और उसका अभिप्राय यह बतायाहै कि पूर्व में भी तीर्थंकरों ने वस्त्र धारण किया था अतः मुझे भी करना चाहिए।' १. आचारांग चूर्णि-श्रु. १, अ. ९, पत्र-२९९ ।