________________
प्रव्रज्या-कल्याणक १६७
.
.
.
.
.
.
.
.
__ अब यह देवदुष्य वस्त्र आचारांग सूत्र के अनुसार दीक्षा के पूर्व अभिनिष्क्रमण के समय ही तीर्थंकर अंग पर धारण कर निष्कमण करते हैं।
यद्यपि ज्ञाता सूत्र में देवदुष्य वस्त्र का कोई उल्लेख ही नहीं है। गुणचंद्राचार्य आदि कई चरित्र कर्ताओं ने चरित्र अंगीकार करने के पश्चात् इन्द्र द्वारा देवदुष्य वस्त्र देने का कहा है। यह कथन कुछ विचारणीय है क्योंकि .प्रतिज्ञाबद्ध होकर परमात्मा क्या पहले देवदुष्य ग्रहण करेंगे ? वस्त्रालंकार का त्यागकर अरिहंत भगवान पंचमुष्ठि लोच करते हैं तब देवराज शक्रेन्द्र वज्रमय थाल या वस्त्र में उन केशों को ग्रहण करते हैं
और हे भगवन् ! आप आज्ञा दें-ऐसा कहकर उन केशों को क्षीरोदधि (क्षीर समुद्र) में प्रवाहित कर देते हैं। सिद्धों को नमस्कार एवं सावधयोग के प्रत्याख्यान
तत्पश्चात शक्रेन्द्र की आज्ञा से सभी वाजिंत्र आदि से होने वाले शब्द बन्द कर दिये जाते हैं और तब अरिहंत परमात्मा, सिद्धों को नमस्कार कर "मैं सर्व सावधकर्मों का त्रिविध परित्याग करता हूँ और सामायिक चारित्र ग्रहण करता हूँ।" इस प्रकार कहकर प्रव्रज्या अंगीकार करते हैं।
आवश्यक चूर्णि, आवश्यक वृत्ति तथा कल्पसूत्र वृत्ति आदि में इस प्रकार कहा है कि
सव्वातित्थगरावि य णं सामाइयं करेमाणा भणंति-करेमि सामाइयं-सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खमि जाव वोसिरामि, भदंति त्ति ण भणति जीतमिति। __चारित्र ग्रहण करते समय जिनेश्वर भगवान "भते" शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं। भदंत शब्द का प्रयोग नहीं करना यह तीर्थंकर भगवान का जीताचार है। तत्वार्थ • वृत्ति में इन सब से सर्वथा विपरीत ही कहा है. करोमि भदन्त ! सामायिकं सर्वान् सावधान् योगान् प्रत्याचक्षे इत्येवं, न चास्यान्यो
भदन्तोऽन्यत्र सिद्धेभ्यः आचारार्थ त्वनेन सिद्धान् वा प्रयुक्तम्।२। - इनकी मान्यतानुसार तीर्थंकर "भदन्त" शब्द कहते हैं, परन्तु प्रभु को सिद्ध से
अन्य कोई भदंत नहीं है अतः "सिद्धेभ्यः" ऐसा कहते हैं। ऐसा उनका आचार है। निर्मल विपुलमति मनःपर्यवज्ञान का आविर्भाव ___ क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र ग्रहण करते ही अरिहंत परमात्मा को अढाईद्वीप और दो समुद्रों में स्थित संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानने वाला, उत्तम परमार्थ वाला, अतिशय प्रकाश वाला मनःपर्यवज्ञान होता है। क्योंकि तीर्थकर जब तक
१. आवशएक चूर्णि-भा. १, पत्र-१६१ । २. तत्त्वार्थवृत्ति-कारिका १६ की व्याख्या-पृ. १३ ।