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________________ १६८ स्वरूप-दर्शन गृहवासी होते हैं तब तक तीन ज्ञान से युक्त होते हैं और चारित्र अंगीकार करने के पश्चात् यावत् छद्मावस्था पर्यन्त चार ज्ञान वाले होते हैं। प्रचंड किरणों वाले सूर्य के ताप से संतप्त बने हुए पथिक को मार्ग में आती हुई वृक्ष की छाया जिस प्रकार सुखदायक होती है वैसे ही प्रभु के दीक्षा महोत्सव के समय नारक जीवों को भी क्षणमात्र सुख प्राप्त होता है तथा उस समय अज्ञानरूप अंधकार को नाश करने से प्रकटित महातपश्चर्या के तेज वाले परमात्मा का समस्त त्रिभुवन में विद्युत् सदृश महाप्रकाश प्रसर जाता है। ऐसे प्रतिपन्न चारित्र वाले एवं समासादित मनः पर्यवज्ञान वाले तीर्थंकर विविध आसनों में तप करते हुए विविध उपसर्गों को सहते हुए यथोचित ईर्यासमिति का पालन करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते हैं। संयमानुष्ठान विधि एवं हेतु पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, पनक- निगोद बीज, हरी वनस्पति एवं त्रसकाय के जीवों को सर्व प्रकार से जानकर - इन सब जीवों का अस्तित्व है और उनमें चेतना है ऐसा जानकर उनकी हिंसा का त्याग करके वे विचरते हैं। इस प्रकार अरिहंत परमात्मा स्वतः ही तत्वों को जानकर ( स्वयंबुद्ध० होकर) आत्मशुद्धि की ओर मन, वचन और काया के त्रियोग को संयत कर, मायादि कषायों से मुक्त होकर, सत्प्रवृत्तिमय रहकर समिति और गुप्ति की प्ररिपालना करते हैं। हेय, ज्ञेय और उपादेय को जानकर वे स्वयं न पाप करते हैं, न अन्य से करवाते हैं और न पाप कर्म करने वाले का अनुमोदन करते हैं। शरीर के ममत्व का परित्याग करके अनुपम विहार से एवं अनुपम संयम, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, समिति, गुप्ति, सन्तोष, कायोत्सर्गादि स्थान और अनुपमक्रियानुष्ठान से युक्त होकर आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। स्वाश्रित साधना देव-देवेन्द्रों से पूजित होने पर भी अरिहंत प्रभु, परम स्वावलम्बी एवं परम स्वाश्रित होते हैं। वे किसी देव-दानव या मानव का कभी सहारा नहीं लेते हैं, न वे स्वयं सहारा चाहते हैं। न सामने से आये सहारे को स्वेच्छा से स्वीकृत करते हैं। भगवान पार्श्वनाथ और महावीर की साधना में धरणेन्द्र, सिद्धार्थदेव, शक्रेन्द्र आदि का सेवा में आकर उपसर्गदाताओं को हटाने का उल्लेख आता है, परन्तु स्वयं महावीर या भगवान पार्श्वनाथ ने या अन्य किसी भी तीर्थंकर ने कभी उनकी सहायता की इच्छा नहीं की । साधना की पूर्वावस्था में शक्रेन्द्र द्वारा उपसर्ग को देखे जाने पर भगवान महावीर को यह प्रार्थना करना कि हे भगवन् ! प्रव्रज्या पालते हुए बारह वर्ष पर्यन्त आपको
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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