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________________ प्रव्रज्या-कल्याणक १६९ ...................................................... दुःखजनक, सामान्य जनों को जीवन त्याग के प्रवर कारण, बलवन्तों को भी प्रकम्पित करने वाले ऐसे उग्र उपसर्ग होंगे। तो प्रभु ! आपकी सेवा में वैयावृत्य करने की अनुज्ञा अर्पित करने की मुझ पर कृपा कीजिये। उस समय भगवान ने उत्तर में कहा-हे सुरेन्द्र! किंतु न भूयं एवं नो भवइ न भावि कइयावि। जं तित्थयरा तुम्हारिसस निस्साए पुवकयकम्भं खवइंसु खविस्संति य खवेंति वा निच्छियं सक्क। ......" ..................ते नियवीरियकम्भक्खएण अन्नोऽत्थि नोवाओ। हे शक्र ! भूत भविष्य वर्तमान में ऐसा कभी नहीं होता है कि किसी की निश्रा में रहकर स्वयं के पूर्वकृत कर्म का क्षय हो। यदि पर के सामर्थ्य से कर्मक्षय संभव होता तो लोच, ब्रह्मचर्य, विविध तप-विधान आदि सर्व विफल हो जाते। अत्यन्त संक्लिष्ट चित्त से जिसका रसविपाक निकाचित किया है ऐसे कर्म स्वयं को भोगने ही पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त उनकी निर्जरा नहीं हो सकती है। कर्म से विवश बना हुआ यह जीव स्वयं ही शुभ या अशुभ कर्म भोगता है। अतः स्वयं के बल से ही कर्मों का क्षय करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय ही नहीं है। ऐसे विविध महाउपसर्गों को पूर्व से ही जान कर मैंने यह संयम स्वीकार किया है। तो मुझे इन उपसर्गों से कौन सा भय है। ___इसी भाव से भावित होकर श्रमण भगवान महावीर ने शूलपाणि यक्ष के मन्दिर में कोपायमान यक्ष के अत्यन्त रौद्र और दुःसह ऐसी सात प्रकार की अपार वेदनाएं समस्त रात्रि पर्यन्त सहन की। एक ही रात्रि में शिरोवेदना, श्रवण वेदना, नेत्रवेदना, .दंतवेदना, नखवेदना, नासावेदना और पृष्ठवेदना ये सातों वेदनाएँ जिनका नाम सुनकर ही सामान्य व्यक्ति का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाये, जिनका स्वरूप भी पीड़ादायी हो, प्रभु ने परम समता के साथ सहन की। दृढभूमि देश में पेढाल गाँव के बाहर ध्यानाश्रित प्रभु को संगम ने छः महिने पर्यन्त असह्य उपसर्ग किये परंतु प्रभु पूर्ववत् निश्चल रहे, अल्पसहाय की इच्छा' भी यदि अरिहंत को हो तो इन्द्र इनकी सेवा में आतुर रहता है। . परंतु परमात्मा स्वात्म चिंतन में निमग्न रहते हैं। - प्रत्येक अरिहंत के शासन-रक्षक यक्ष-यक्षिणी होते हैं, जो समय-समय पर शासन की संकट से रक्षा और उनके भक्तों की इच्छा पूर्ण करते रहते हैं। अरिहंत परमात्मा अपने कष्ट-निवारणार्थ उन्हें भी याद नहीं करते ।। अनुत्तर योगविधि ___ आभ्यंतर एवं बाह्य सांसारिक सर्व बन्धनों से मुक्त अरिहंत परमात्मा कर्म-बन्धन की मुक्ति हेतु यत्नशील होकर साधना करते हैं। साधना के मुख्य दो अंग हैं-ध्यान एवं तपश्चर्या। अरिहंत के ध्यान का कोई निश्चित स्थान नहीं होता है। क्योंकि वे ग्रामानुग्राम विचरते हुए बाहर उद्यान में निवास करते हैं। अतः कभी अरण्य में तो
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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