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________________ आराधक से आराध्य ८७ .. . .. ........... प्रकार से एवं शुद्ध रूप से करते हैं, वे अपने आर्हन्त्य को प्रकट करके स्वयं अरिहंत बन जाते हैं। सिद्ध वात्सल्य पवित्र देह के आन्दोलनों का अन्त होने पर जो अवस्था आती है वह सिद्ध की अवस्था है। यह केवलज्ञान की उपलब्धि के अनन्तर आत्मप्रदेशों की स्पंदनरहित अवस्था है। यह शाश्वत, ध्रुव और नित्य अवस्था है। अब ऐसे सिद्धों का वात्सल्य कैसे किया जाय, यह विचारणीय है। सिद्ध वात्सल्य करने के पूर्व साधक को एक बात का खास ख्याल रखना चाहिए कि वह कभी इस प्रश्न में न उलझ जाय कि अरिहंत भगवान की भक्ति और ध्यान तो सरलता से हो सकता है, क्योंकि वे साकार हैं, सशरीर हैं, किन्तु सिद्ध भगवंत तो अशरीरी-निराकार हैं, उनकी भक्ति और ध्यान कैसे किया जाय? क्योंकि हमें अरिहंत भगवान के ध्यान में भी उनके आकार में नहीं उलझ कर, उनकी निर्मल आत्म-दशा का चिन्तन करना है। यदि उनकी विशुद्ध दशा का चिन्तन नहीं किया गया और शारीरिक आकृति आदि में ही अटके रहे, तो उससे वास्तविक लाभ नहीं होगा। हमें अपनी आत्मा में वैसे गुण जगाने हैं, तो आत्मा का ही आलंबन लेना चाहिए। अरिहंत भगवान् की विशुद्ध दशा का चिंतन करने के लिए सिद्ध अवस्था का स्मरण होना चाहिए। वह अपनी आत्मा में भी क्षणभर के लिए परम विशुद्ध अवस्था का आरोपण कर शांति का आंशिक अनुभव करना है, अपने हृदय में सिद्ध परमात्मा की प्रतिष्ठा. कर के हृदय को मल से रहित शुद्ध बनाना है। इस प्रकार पवित्र ध्यान-धर्मध्यान के अभ्यास से पवित्र होता हुआ आत्मा इतना विशुद्ध हो जाता है कि कभी शुक्लध्यान में प्रवेश कर जाता है और क्षपकश्रेणी का आरोहण करके अरिहंत दशा को प्राप्त कर लेता है। ___ अरिहंत तो क्षेत्रविशेष और कालविशेष में कई भाग्यशालियों को प्रत्यक्ष भी होते हैं। किंतु सिद्ध भगवान् तो सदैव परोक्ष ही रहते हैं। परम विशुद्ध, अरूपी आत्मा, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी के सिवाय किसको प्रत्यक्ष हो सकती है? जिस भव्यात्मा पर दर्शनमोह का प्रभाव न हो, वह विकास की तरतमता एवं आत्मानुभूति द्वारा आत्मा के अरूपी स्वरूप को समझकर श्रद्धान कर सकता है। सिद्ध पद की उत्कृष्ट आराधना करके अपने सोये हुए सिद्ध भाव को जाग्रत करना चाहिए और समस्त आवरणों का अन्त करके सिद्ध पद प्राप्त करने में प्रयत्लशील रहना चाहिए। सिद्धपद की उत्कृष्ट आराधना करते हुए यदि भावों में परम उल्लास आवे, उत्कृष्ट रस आवे, तो परमपुण्य प्रकृति तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करके अरिहंत पद प्राप्त किया जा सकता है। जिस लोकोत्तर मार्ग का अनुसरण करके सिद्ध भगवन्तों ने अपूर्व सिद्धि प्राप्त की, हम भी उस मार्ग पर चलकर, उस परम सिद्धि को प्राप्त करें।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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