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८६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम आत्मप्रिय !
जिसे तुम नमस्कार करते हो, वह तुम ही हो, मैं तो तुम्हारी अनुभूतियों में व्याप्त हूं, उठो, जागो और इन अनुभूतियों को अभिव्यक्त करो !
यही मेरी संबोधि है, यही तुम्हारी निधि है ! उपासक अपने आस-पास के वातावरण और स्थिति को भूल कर यह अनुभव करता है कि "मैं भगवान् के समवसरण में हूँ।" वह भगवान् के कषाय-कालिमा-शून्य निर्मल एवं पवित्र तथा प्रकाशमान आत्मा के स्वरूप का चिन्तन कर, तदनुरूप बनने - की भावना करे, उस पवित्रता को अपनी आत्मा में उतारने का अभ्यास करें।
इस प्रकार रूपस्थ-ध्यान में लीन हुआ साधक, प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद ही भूल जाता है। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो वह प्रभु को अपने समक्ष अनुभव करता है। . संक्षेप में यही समझना चाहिए कि अरिहंत बनकर ही अरिहंत की पूजा हो सकती है. और इसी से हमारा आर्हन्त्य प्रकट हो सकता है। उनके प्रति परम भक्तिराग, यथावस्थित अनुराग, यथानुरूप उपचार लक्षण, यथाभूत (सत्य) गुणों का स्थापन, कीर्तन तथा यथारूप उपचार लक्षण से यह वात्सल्य किया जाता है। .
प्रस्तुत आदर विधि उन्हीं को अर्पित हो सकती है जिनमें अर्पण दाता की परम श्रद्धा हो, पूर्ण विश्वास हो। वैसे तो इनके वात्सल्य से तीर्थंकर नाम कर्म का निकाचन होता है परंतु इसकी अधिक विशेषता दर्शाते हुए कहा जाता है-अरिहंत, गुरु, साधु, संघ, सिद्धांत और धर्म के आदर और बहुमान पूर्वक किये जाने वाले वात्सल्य से प्रगाढ़ पाप के समूह का मुहूर्त मात्र में ध्वंस हो जाता है। इस प्रकार परमात्मा के प्रति की जाने वाली भक्ति मुक्ति का कारण है परंतु वह युक्तियुक्त होनी चाहिए। परमात्मा के निरूपण को सुनकर उसके अनुसार चलना युक्तियुक्तता है। स्वयं के विचारों से की जाने वाली भक्ति स्वेच्छापूर्ण भक्ति कहलाती है।
अरिहंत भगवान् की भक्ति तीन प्रकार से होती है-१. श्रद्धा से, २. प्ररूपणा से और ३. स्पर्शना से। दर्शन-श्रावक श्रद्धा और यथावसर प्ररूपणा से भक्ति करता है। स्पर्शना रूप भक्ति में वह स्मरण, स्तुति, वन्दना, नमस्कार, श्रुतज्ञान का अभ्यास, प्रचार
और त्यागी वर्ग तथा साधर्मिक की यथाशक्ति सेवा करता है, प्रवचन-प्रभावनादि रूप स्पर्शना भी करता है, किंतु प्रत्याख्यान-परिज्ञा (विरति) रूपी-स्पर्शनी नहीं कर सकता।
जो देशविरति श्रावक हैं, वे उपरोक्त आराधना के अतिरिक्त देशविरत होकर आंशिक रूप से विरति की स्पर्शना भी करते हैं। जो सर्वविरत साधु-साध्वी हैं, वे भगवान् की आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करते हैं। जो अरिहंत परमात्मा की भक्ति सर्व १. महावीर चरित्र-प्रस्ताव-८, पत्र २८६, गा. ६।