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________________ ..........................८५.. लोक-सान्निध्य की अपेक्षा अधिक नजदीक परमात्मा का परोक्ष अलौकिक सान्निध्य हो सकता है। साक्षात् अरिहंतों की प्रत्यक्ष-भक्ति का योग तो थोड़े जीवों को, बहुत कम समय के लिए मिलता है। जिस समय भगवान् पृथ्वी पर विचरते हैं, उस समय भी लोगों को उनकी भक्ति करने का बहुत कम अवसर मिलता है, क्योंकि तीर्थंकर भगवान एक होते हैं और क्षेत्र विशाल होता है। जैसे-स्कन्दकजी तथा गणधरों ने अन्तिम संथारा करते समय पर्वतादि पर रहते हुए परोक्ष-भक्ति की थी। प्रत्यक्ष और परोक्ष भक्ति की विधि में कोई अंतर नहीं रहता। प्रत्यक्ष में सम्मुख उपस्थित होकर वन्दना नमस्कार किया जाता है, उसी प्रकार परोक्ष में भी वन्दनादि की जा सकती है। प्रत्यक्ष को कुछ दिया नहीं जाता, भेंट या चढ़ावा नहीं चढ़ता। प्रत्यक्ष में पृच्छादि से अधिक लाभ होता है, किन्तु उपासना की विधि तो प्रत्यक्ष और परोक्ष की लगभग समान ही है। प्रत्यक्ष को कभी आहार स्थान आदि प्रतिलाभने अर्पण करने का अवसर प्राप्त हो सकता है. इसके सिवाय शेष भक्ति समान ही होती हैं। यदि उपासक, परोक्ष की भावपूर्वक भक्ति करना चाहे तो उसके समक्ष प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद नहीं रहता। वह परोक्ष को भी हृदय में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है। परोक्ष भक्ति इस प्रकार की जा सकती है। हम कल्पना करें कि नगर के बाहर उद्यान में, एक वृक्ष की शीतल छाया में, शिलाखण्ड पर प्रभु पर्यंकासन में विराजमान हैं। उनके श्रीमुख पर परम शांति एवं प्रसन्नता झलक रही है। उस सौम्य आकृति से पवित्रता, विशालता और निर्दोषता प्रकट हो रही है। केवलज्ञान के प्रबल प्रकाश से उनकी आत्मा का प्रत्येक प्रदेश प्रकाशमान हो रहा है। समवसरण में विशाल संख्या में भव्य जीव बैठे हुए एकाग्रतापूर्वक प्रभु के मुंखकमल पर दृष्टि जमाए हुए हैं। भगवान् अपनी पवित्र वाणी से उपदेश दे रहे हैं। हम अपना सर्वस्व परमात्मा के चरणों में अर्पित कर रहे हैं। परमात्मा के चरणों में मस्तक झुक रहा है। चरणों से निकलती हुई प्रशान्तवाहिता हमारे प्रत्येक आत्मप्रदेशों में प्रवेश कर तरंगित हो रही है। वैषयिक आन्दोलन समाप्त हो रहे हैं। परमात्मा ने हमारे मस्तक पर हाथ रखकर कहा "वत्स ! प्रसन्न रहो हमारे साथ रहे अन्य भव्य प्राणियों के साथ सभी को सम्बोधित करते हुए परमात्मा कह रहे हैंभव्यो ! तुम में आर्हन्त्य विद्यमान है, अपनी अर्हता का अभिनन्दन करो ! तुम ही प्रभु हो, उठो, अपनी प्रभुता को प्रकट करो ! तुम सिद्ध स्वरूप हो, अपनी सिद्धता को सम्पन्न करो !
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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