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________________ ८४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम प्राप्ति के पश्चात् समवसरण रचना के बाद समवसरण में प्रवेश कर देशना हेतु स्थान ग्रहण करने के पूर्व तत्काल ही जिनेन्द्र तीर्थ-प्रवचन को नमस्कार करते हैं। कैवल्य प्राप्ति के बाद जो अरिहंतों से भी नमस्कृत्य होता है वह हमारा वात्सल्य-स्थानक कैसे हो सकता है ? ___ यद्यपि द्रव्य-गुण-पर्याय की दृष्टि से आत्मा ही अरिहंत, सिद्ध, प्रवचनादि है फिर भी आवृत आत्मगुणों के निरावरण-उजागर हेतु गुणियों का वात्सल्य आवश्यक एवं अनिवार्य है। आर्हन्त्य या सिद्धत्व की सत्ता संग्रहनय की अपेक्षा से हममें संभव हो सकती हैं परंतु वह उनके द्रव्य, गुण, पर्याय का ध्यान कर आत्मा की शुभ प्रवृत्तियों द्वारा ही सिद्ध हो सकती है। द्वादशांगी रूप परम प्रवचन का अध्ययन किये बिना हमारा आत्मसामर्थ्य निष्फल रहता है। पंचाचार का पालन करने वाले, स्थिर परिणमन वाले गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, साधु का आत्म-चिन्तन किये बिना उन पदों का सर्वाधिकारी आत्मा चारित्रवान् कैसे हो सकता है? इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन, विनय, आवश्यकादि अन्य गुण भी विशिष्ट श्रद्धाबल, परम ज्ञानबल, विशुद्ध चरणबल और नैष्ठिक संयम-बल के अतिरिक्त अनन्त आत्मगुणों का स्वामी यह आत्मा; विकास मार्ग में आत्म-स्फुरणा नहीं कर सकता है। इसीलिए आनंद के प्रवर गुण सम्पन्न आनंदघनजी कहते हैं- "जिन स्वरूप थई जिन आराधे ते सही जिनवर होवे रे।" इस प्रकार बीसों स्थानकों में अनुक्रम से आत्मा का अभेद स्थापित कर परमात्म पद प्राप्त किया जाता अरिहंत-वात्सल्य वात्सल्य-सप्तक में सर्वप्रथम महत्वपूर्ण वात्सल्य-स्थान अरिहंत हैं। हमारे वात्सल्य-भक्ति के सर्वप्रथम स्वामी अरिहंत परमात्मा हैं। सर्व सांसारिक-पौद्गलिक स्नेह-सम्बन्धों का विच्छेद कर हृदय के समस्त वात्सल्य-पूर्ण भक्तिभाव इनके चरणों में अर्पित कर दो। इस अर्पण विधि के स्वीकारः कर्ताओं में सर्वप्रथम अधिकारी हैं अरिहंत-परमात्मा। यह कैसी अद्भुतता उनको वात्सल्य करते-करते, उनकी आराधना करते हुए, उन्हीं का ध्यान करते हुए, उन्हीं के परम पद की प्राप्ति। पर प्रश्न होता है वात्सल्य तो उससे किया जाता है जो प्रत्यक्ष हो, लोक में हो। लौकिक वात्सल्य-सम्बन्धों में हम पाते हैं-बच्चा माँ के अतिरिक्त और माता बालक के अतिरिक्त नहीं रह सकती। सारी प्रवृत्तियाँ करती हुई भी. उसका ध्यान सदा बच्चे में ही रहता है। अपना सारा प्यार-दुलार बच्चे को देकर माँ कृतकृत्य हो जाती है, परंतु माँ बालक का और बालक माता का सतत् सान्निध्य चाहता है। अरिहंत परमात्मा तो सर्वकाल सर्वत्र प्रत्यक्षतः सुलभ सान्निध्यवान् नहीं होते हैं तो कैसे उनका वात्सल्य किया जाय? इस प्रश्न का समाधान ज्ञानी पुरुषों ने यह कहकर किया कि वात्सल्य के स्वामी जैसे अद्भुत हैं; उनके प्रति किया जाने वाला वात्सल्य भी वैसा ही अद्भुत है। प्रत्यक्ष
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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