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१०८ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
__ अवश्यं करणाद् आवश्यक। जो क्रिया अवश्य करने योग्य है उसी को “आवश्यक" कहते हैं। आत्मा सहज सुख का अनुभव तभी कर सकता है, जब उसके सम्यक्त्व, चेतना, चारित्र आदि गुण व्यक्त हों। इन गुणों से ही वह उस क्रिया को अपना आवश्यक-कर्म समझता है, इसीलिए ऐसी व्याख्या की है कि-गुणानां वश्यमात्मानं करोतीति आत्मा को दुर्गुणों से दूर कर गुणों से संयुक्त करना ही आवश्यक है। आ + वश्य = आवश्यक अथवा गुणशून्यमात्मानं गुणेरावासयतीति आवासम्। अर्थात् गुणों से शून्य आत्मा को जिन गुणों से वासित किया जाय वह आवश्यक है। प्राकृत में आवासक का भी “आवस्सय" होता है। यह कथन अनुयोग । चार सूत्र की निम्नोक्त गाथा से सिद्ध होता है।
आपाश्रयो वा इदं गुणानाम्, प्राकृतशेल्या आवस्सयं । प्राकृत भाषा में आधार वाचक आपाश्रय शब्द भी-“आवस्सयं" कहा जाता है। आचार्य मलयगिरि के अनुसार इन्द्रिय और कषाय आदि भाव शत्रुओं को जिस साधना • द्वारा ज्ञानादि गुणों से पराजित किया जाता है उसे आवश्यक कहते हैं। आचार्य बट्टेकेर के अनुसार-जो साधक राग, द्वेष, विषय, कषायादि के यशीभूत न बने उसे अवश कहा जाता है, उस अवश का जो आचरण है वह आवश्यक है।
आवश्यक के दो भेद किये गये हैं
१. दोष युक्त आवश्यक करने पर भी फिर से उस दोष का बार-बार सेवन करना, यह द्रव्य आवश्यक है।
२. भाव आवश्यक का अर्थ है-अंतर्दृष्टि में स्थिर होना, व्यवहार से परे होकर अध्यात्म में लीन होना। समभाव की साधना में आसीन रहता।
अनुयोगद्वार सूत्र में और भी आवश्यक सूत्र के छः प्रकार दर्शाये हैं-सामाइयं, चउयीसत्थओ, वंदणयं, पडिक्कमणं, काउसग्गो, पचक्खाणं।
१. सामायिक-समभाव, समता। २. चतुर्विंशतिस्तव-वीतराग देव की स्तुति। ३. वन्दन-गुरुर्देवों को वंदन, नमस्कार। ४. प्रतिक्रमण-वापस लौटना, विभाव से स्वभाव में लौटना, अधर्म से धर्म में ___ लौटना, पर की अनुभूति से मुक्त होकर स्वानुभूति को आत्मसात् करना। ५. कायोत्सर्ग-देहभाव का विसर्जन। ६. प्रत्याख्यान-गुरुसाक्षी से स्वेच्छापूर्वक ली जाने वाली प्रतिज्ञा।
१. प्रतिक्रमण सूत्र भाग-१। २. अनुयोगद्वार सूत्र-सू. २९, भाग १, पृ. १७८ (पूज्य घासीलालजी म. सा. कृत)
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