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आराधक से आराध्य १०७ ५. वचन विनय-वचन से किया जाने वाला विनय चार प्रकार का है
१. हितवाणी-जिसका परिणाम.सुंदर हो। २. मितवाणी-जो अल्पाक्षर वाली हो।। ३. अकठोर-जो श्राव्यमधुर-कर्णप्रिय हो, अर्थात् जिसके सुनने से क्रोध
उत्पन्न न हो। ४. अनुपातिक-अनुसरने वाली वाणी बोलना। ६. कायिक विनय-काया से किये जाने वाला विनय आठ प्रकार का है
१. अभ्युत्थान-खड़े होकर स्वागत करना। २. अंजलिबन्ध-हाथं जोड़ना। ३. आसन-उन्हें आसन प्रदान करना। ४. अभिग्रह-गुर्वाज्ञा का पालन करना, उनकी वस्तुओं को यथावत्
यथास्थान रखना। ५. कृतिकर्म-नमस्कार करना। ६. शुश्रूषा-विधि अनुसार न बहुत दूर अथवा न बहुत नजदीक रहकर गुरु .. की सेवा करना।
७. अनुगमन-उनके जाते समय उन्हें छोड़ने जाना।
८. संसाधन-आते समय उनके सामने जाना और उनकी सेवा करना। ७. लोकोपचार विनय-विनय का सातवाँ भेद है-लोकोपचार विनय। इसे एक प्रकार का लोकव्यवहार भी कह सकते हैं। इसके सातं भेद बताये गए हैं, जो इस प्रकार
१. गुरु आदि के निकट रहना, २. उनकी इच्छानुसार वर्तन करना, ३. उनके किसी कार्य को पूरा करने के लिए साधन आदि जुटाना,
४. गुरुजनों ने जो उपकार किये हैं उनका स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञ . रहते हुए उस उपकार का बदला चुकाने का प्रयत्न करना।
५. रोगी आदि की सेवा के लिए तैयार रहना। ६. जिस समय जैसा व्यवहार और जैसा संभाषण उपयुक्त हो, वैसा करना
अर्थात् समयोचित व्यवहार करना, और
७. किसी के विरुद्ध आचरण न करना। आवश्यक
अरिहंत-पद प्राप्ति का ग्यारहवाँ उपाय "आवश्यक साधना" है।