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जन्म-कल्याणक १५३ ................................
४. लक्ष्मी से पूर्ण उदित कुंभ, ५. प्रशस्त मत्स्ययुग्म, ६. अज्ञान नाशक श्रीवत्सक, ७. नंदावर्त और ८. स्वस्तिक
इस प्रकार अष्ट मंगल का आलेख कर उनका अष्ट प्रकार से पूजन अर्चन करते हैं। ____ तदनन्तर पाटलवृक्ष के, मालती के, चंपक के, अशोक वृक्ष के, पुन्नाग के, नाग के,
और कोरंट वृक्ष के पत्रों और पुष्पों का जानुप्रमाण ढेर कर चन्द्रप्रभ वज्र वैदूर्य रत्नमय विमल दंडवाले कांचनमणि रत्न जैसा कृष्णागुरु, श्रेष्ठ कुंदरुवक, तरुवक जिसमें जलाते हैं वैसा, धूप देने का. वैदर्य रत्नमय कडछा ग्रहण कर जिनेन्द्र को उसका धूप देकर भगवान से सात आठ पांव पीछे सरकते हैं, फिर दशों अंगुलियों से अंजलि कर अर्थयुक्त, पुनरुक्ति दोष से रहित १०८ विशुद्ध पाठ से युक्त, महाकाव्य द्वारा परमात्मा की स्तुति करते हैं। बाद में बाम जानु को ऊपर उठाकर, मस्तक पर अंजलि कर इस प्रकार बोलते हैं- “तुम्हें-नमस्कार हो। हे सिद्ध-बुद्ध-ज्ञाततत्व-नीरज-कर्मरजरहितश्रमण-समाहित-अनाकुल चित्त-समाप्त (सम्यक् प्रकारेण प्राप्त) समायोगिन्-मन-वचनकाया के कुशल योग वाले शल्य विनाशक-निर्भय-निराद्वेष-निर्मम-निस्संग-निर्लेपनिःशल्य-मानमर्दक-गुणरत्ल-शीलोदधि अनंतज्ञानमय-धर्म के चातुरंत चक्रवर्ती ! हे · अरिहंत! आपको नमस्कार हो।" • अच्युतेन्द्र की तरह ईशानादि अन्य इन्द्र एवं भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी के . इन्द्र सपरिवार पर्युपासना कर अभिषेक करते हैं। तत्पश्चात् इशानेन्द्र अपने विकुर्वित
(निर्मित-दिव्य सामर्थ्य से उत्पादित) पंचस्वरूप से परमात्मा को अपने हाथ में ग्रहण कर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बैठते हैं। एक स्वरूप से पीछे छत्र धारण करते हैं, दो रवरूप से दोनों ओर चामर बींजते हैं, और एक स्वरूप से आगे शूल लेकर खड़े होते हैं।
सौधर्मेन्द्र की तरह इशानेन्द्र भी पाँच रूप धारण करते हैं। परन्तु सौधर्मेन्द्र पाँचवें रूप में आगे वज्र लेकर चलते हैं और ईशानेन्द्र आगे शूल लेकर खड़े रहते हैं। ___ वैसे भी इन्द्र अपने मूल रूप में तो आते नहीं हैं, जिस रूप में (वैक्रिय शरीर से) वे वहाँ रहते हैं उसे स्वाभाविक वैक्रिय शरीर कहते हैं और इससे भी अलग मूल वैक्रिय के अतिरिक्त वे उत्तरवैक्रिय शरीर से पृथ्वी पर आते हैं। क्योंकि इन्द्र के द्वारा भरत को यह बताने पर कि “राजन् ! स्वर्ग में हमारा जो रूप होता है उसे तो मनुष्य देख भी नहीं सकते हैं।" १. त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र-पर्व-१, सर्ग ३, श्लोक २१४-२२२