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________________ १५२ स्वरूप-दर्शन __ये कलश पच्चीस योजन ऊँचे, बारह योजन चौड़े एवं एक योजन नाली के मुँह वाले होते हैं। . कलशों की तरह आठ प्रकार के झारियां, दर्पण रल के करंडीये सुप्रतिष्ठिक डिब्बियां, थाल, पत्रिकाएं, और पुष्पों की चंगेरिया भी उन्हीं संख्या में तैयार होते हैं। इन सामग्रियों को विकुर्वित कर बाद में वे क्षीरोदधि का क्षीरोदक सहस्र दल कमल आदि तथा पुष्पोदक मागधादि तीर्थ का पानी एवं मृत्तिकादि गंगादि महा-नदियों के जल, चुल्ल हिमवंत के आंवलादि पदार्थ, पुष्प, गंध तथा सिद्धार्थ मांगलिक औषध्यादि एवं इसी प्रकार पद्मद्रह के जल, कमल; वर्षधर, वैताद्य आदि पर्वत पर ... सर्व महाद्रह, सर्व क्षेत्र, सर्व चक्रवर्ती के विजय, सुदर्शन, भद्रशालवन, नंदनवन, सौमनसवन, पंडगवन आदि से जल, कमल, गोशीर्ष चन्दन, मलयगिरि चंदनादि अन्य . सुवासित पदार्थ को ग्रहण कर जन्माभिषेक के स्थान पर उपस्थित होते हैं। ___अच्युतेन्द्र दस हजार सामानित देव, तैतीस त्रायस्त्रिंशक देव, चार लोकपाल, तीन परिषदा, सात अनीक, सात अनीक के अधिपति, चालीस हजार आत्मरक्षक देव सहित स्वाभाविक और वैक्रियवाले सुंदर कमल से प्रतिष्ठित (अवस्थित – रखे हुए) अर्थात् कमल से युक्त ऐसे जल से महत् शब्द (जय-घोषणा) पूर्वक अभिषेक करते हैं। इसमें सर्व कलश एवं सर्व औषध्यादि मांगलिक पदार्थों का उपयोग किया जाता है। ___ इस अभिषेक के समय कुछ देव पंडगवन को जाते हैं, कुछ देव रजत वृष्टि करते हैं, कुछ देव सुवर्ण वृष्टि करते हैं, कुछ देव वज्र याने हीरा की वृष्टि करते हैं, कुछ देव आभरण, पत्र-पुष्प, बीज, माला, गंध, चूर्ण, सुवासित द्रव्यादि की वृष्टि करते हैं। कुछ देव तत, वितत, घन और झुषिर ऐसे चार प्रकार के वाजिंत्रं बजाते हैं, कुछ देव उत्क्षिप्त, षडता, मंदाइक और रौचितावसान ऐसे चार प्रकार के गीत गाते हैं, कुछ.देव अंचित, द्रुत, आरभद एवं भंसोल ऐसे चार प्रकार के नृत्य करते हैं, कुछ देव इष्टांतिक, प्रतिश्रुतिक, सामन्तोविनिपातिक एवं लोकमध्यावसानिक ऐसे चार प्रकार के अभिनय करते हैं। कुछ देव बत्तीस प्रकार के नाटक करते हैं। इत्यादि विविध प्रकार से देवसमुदाय इस स्नात्र महोत्सव को मनाते हैं। स्नात्र महोत्सव के पश्चात् जयध्वनि के साथ अच्युतेन्द्र सुकोमल, सुवासित गंध काषायिक वस्त्र से तीर्थंकर के गात्र को पोंछते हैं, अलंकारों से विभूषित करते हैं, और सुन्दर रत्न पहना कर अष्ट कर्म क्षय निमित्त, अष्ट लब्धि प्राप्त करने हेतु अखण्ड रजतमय अक्षत से अष्ट मंगल का आलेखन करते हैं १. दर्पण-आदर्श, २. विद्वानों को कल्याणकारी भद्रासन, ३. अर्थसंगत् वर्धमान,
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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