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________________ अप्रमत्त रूप से संयम चर्या का पालन करते हुए घातिकर्मों का क्षय कर केवलज्ञान को प्राप्त होते हैं। यह है केवलज्ञान-कल्याणक अर्थात् अरिहंत की विपाकोदय पुण्यमयी बेला। इसी समय देवों द्वारा जीताचार-रूप समवसरण (विशिष्ट धर्मसभा) की रचना की जाती है। उस समवसरण में बारह प्रकार की पर्षदा के बीच अष्टमहाप्रातिहार्य से युक्त अरिहंत परमात्मा देशना देते हैं, गणधर त्रिपदी का श्रवणकर द्वादशांगी की रचना करते हैं और देशना के पश्चात् साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ तीर्थ की स्थापना की जाती है। ___ सप्तनयगर्भित धर्मदेशना प्रतिदिन सुबह-शाम प्रहर पर्यन्त दी जाती है। कर्म, कर्म-बन्ध, कर्मक्षय, मुक्ति-स्वरूप, एवं उसकी प्राप्ति के उपाय, आत्मा का ज्ञानगर्भित . स्वरूप आदि इनके प्रवचन के विषय होते हैं। देशना श्रवण के फलस्वरूप कई आत्माएं .. सम्यक्त्व, देशविरति या सर्वविरति धर्म को अंगीकार करते हैं। इस प्रकार अरिहंत तीर्थंकर नाम-कर्मरूप पुण्यलक्ष्मी स्वरूप सहज प्रवचन दान करते हैं। . निश्चित समय पर अंतिम देशना देकर विशेष आसन में योगविधि द्वारा अयोग की ओर चलने हेतु योग निरोध की प्रक्रिया में प्रयुक्त होते हुए गुणश्रेणियों द्वारा अघाति कर्मों का भी क्षय कर सर्वथा मुक्ति स्वरूप सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं। इसे निर्वाण-कल्याणक कहते हैं। __सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा तीर्थंकर परमात्मा के विशिष्ट व्यक्तित्व, का निखार ही प्रस्तुत खंड का मुख्य विषय है। मनुष्य होकर भी देवाधिदेव की स्थिति को प्राप्त कर इस अंतिम जन्म में लोकोत्तर स्थिति को सम्पन्न कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त होने के पूर्व शासन में बड़ी विरासत अर्पित करनेवाले मात्र अरिहंत ही हैं, ऐसा स्पष्टोल्लेख ही इस खंड का उद्देश्य है। इस प्रकार तीन खंडों के द्वारा अरिहंत के अखंड स्वरूप की हमें उपलब्धि और अनूभूति प्राप्त हो सकती है। तात्पर्य यह है कि तीनों खंड हमारे अखंड आर्हन्त्य को आविर्भूत करने की अक्षय साधना विधि हैं। __ अरिहंत परमात्मा विशेष समय और विशेष क्षेत्र में ही होते हैं। जिस क्षेत्र और जिस काल में होते हैं उस क्षेत्र को कर्मभूमि और उस काल को चतुर्थ आरा कहा जाता है। वहां सदा काल धर्म की प्रवर्तना होती रहती है। जैनों के परमात्मा दुःखमय विश्व का निर्माण नहीं करते हैं पर दुःख-मुक्ति के मार्ग को प्रदर्शित करते हैं। उनकी उत्पत्ति भी विश्व रचना के स्वाभाविक क्रम में से ही एक क्रम है। जगत में यदि दुःख हैं, दुःख के हेतु हैं तो उन दुःखों से मुक्ति पाने के हेतु भी होने चाहिए। इन हेतुओं की उत्पत्ति अरिहंत से ही संभव है। [१०]
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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