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________________ • मग्न रहते हैं। स्वयं की सर्वशक्तियों का तप और त्याग में उपयोग करते हैं। संघ और साधु की सेवाभक्ति करते हैं। विश्व के सर्व जीवों की शान्ति और समाधि चाहते हैं। जिनाज्ञा का अनुसरण एवं आचरण करते हैं। प्रवचन की प्रभावना करते हैं। शासन की उन्नति करते हैं। औचित्य का पालन करते हैं। विश्व-यात्सल्य को धारण करते हैं और ऐसी उत्कृष्ट आराधना के योग से उत्कृष्ट पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन करते हैं। इसके पूर्व यदि नरक गति का आयुष्य न बांध लिया हो तो बाद में वैमानिक देवलोक का ही आयुष्य बांधते हैं। इस प्रकार बांधे हुए नरक या देवगति का सागरोपम का आयुण्य पूर्ण कर वे मनुष्य गति में राजकुल में उत्पन्न होते हैं। उसी समय तीनों लोक में उद्योत होता है। माता विशिष्ट प्रकार के १४ स्वप्न देखती है। इस अवस्था को च्यवन कल्याणक कहते हैं। यथासमय गर्भकाल पूर्ण कर जन्म लेते हैं। इस समय भी उद्योत आदि होता है। ५६ दिक्कुमारिकाएं सूतिकर्म करती हैं। इन्द्रादि देव मेरु पर्वत पर क्षीरोदधि के निर्मल जल द्वारा अभिषेक करते हैं। अंगुष्ठ में इन्द्र अमृत का संक्रमण करते हैं। तीर्थंकर कभी स्तनपान नहीं करते हैं, अरिहंत की इस अवस्था को जन्म कल्याणक कहते हैं। कुछ बड़े होकर समानवयवाले बालकों के साथ क्रीड़ा करते हैं किन्तु उनका ज्ञान और बल, विवेक और चातुर्य अपूर्व होता है। गुरु को मात्र साक्षीरूप रखकर ही सर्वविद्याओं को ग्रहण करते हैं। विरक्त होने पर भी भौगिक कर्म-क्षय हेतु गृहवास करते हैं, माता-पिता के आग्रह से पाणि-ग्रहण करते हैं, किन्तु विषयों के प्रति अन्तःकरण से विरागी रहते हैं। इस प्रकार के निकाचित कर्मों का क्षय होते ही दीक्षा हेतु तेयार होते हैं। ... अवसर को बधाई देते हुए नव लोकांतिक देव जीताचार हेतु प्रतिबोध करते हैं और सांवत्सरिक दान कर अरिहंत परमात्मा दीक्षा ग्रहण करते हैं। इस अवसर को प्रव्रज्या-कल्याणक कहते हैं। विशुद्धि द्वारा नियमतः उन्हें मनःपर्यवज्ञान होता है। अरिहंत परमात्मा की प्रस्तुत अवस्था बहुत महत्वपूर्ण है। कैवल्य उपलब्धि के पश्चात् तो इनकी आराधना उपासना बहुत होती है, उनकी विपाक में आती पुण्य लक्ष्मी का लाभ जाने-अनजाने में सभी को मिलता है किन्तु इन सब के पूर्व आत्म-विकास की उपलब्धि रूप प्रबल पुरुषार्थ की यह उचित बेला जिसमें इनका हेतु मात्र-"पुण्णकम्म खयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे" से सूत्रान्वित होता है। विविध आसनों में ध्यान करते हुए अनेकानेक उपसर्ग-परीषहों पर विजय प्राप्त कर अपूर्व विशिष्टता प्रस्तुत करते हैं। [९]
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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