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________________ प्रव्रज्या-कल्याणक १७१ .......... . . . . . . (१) ऊर्ध्वलोक के द्रव्यों का साक्षात्. करने के लिए ऊर्ध्व-दिशापाती ध्यान। (२) अधोलोक के द्रव्यों का साक्षात् करने के लिए अधो-दिशापाती ध्यान। (३) तिर्यक् लोक के द्रव्यों को साक्षात् करने के लिए तिर्यक्-दिशापाती ध्यान। (४) ऊर्ध्वगामी, अधोगामी और तिर्यग्गामी कर्म। (५) संसार, संसार-हेतु और संसार-परिणाम-कर्म विपाक। (६) मोक्ष, मोक्ष-हेतु और मोक्ष-सुख। (७) आत्म-समाधि, परसमाधि और ज्ञानादि समाधि। आचारांग चूर्णि में कहा है कि अरिहंत कभी बाह्य पुद्गल-बिन्दुओं पर दृष्टि को स्थिर रखकर अनिमेष नयन से भी ध्यान करते हैं। अरिहंत भगवान् आन्तरिक भावों द्वारा ध्यान में द्रव्य-गुण-पर्याय के नित्य-अनित्य आदि का चिन्तन तथा स्थूल-सूक्ष्मादि पदार्थों का ध्यान एवं आत्मनिरीक्षण करते हैं। निरंतर ध्यान करते हुए वे निद्रा का सेवन नहीं करते हैं, यदि कभी उन्हें निद्रा आती भी है; तो वे सावधान होकर आत्मा को जगाने का यल करते। निद्रारूप प्रमाद को संसार-भ्रमण का कारण जानकर भगवान सदा अप्रमत्त भाव से संयम साधना में सावधान रहते हुए भी यदि कभी झपकी भी आने लगती तो वे शीतकाल में भी रात को बाहर निकलकर मुहूर्त मात्र चंचमण करके पुनः ध्यान एवं आत्मचिन्तन में संलग्न हो जाते हैं। . . भगवान् के ध्यान का स्वरूप दर्शाते हुए कहा गया है कि नासिका के अग्रभाग पर नेत्रों को स्थिर रखकर ध्यान करते हैं। वैसे तो सर्व अरिहंत आर्त एवं रौद्र ध्यान का त्याग कर प्रथम धर्मध्यान में स्थित रहते हैं तथा बाद में कर्मरूप ईंधन के जलाने में दावानलवत् शुक्लध्यान का प्रारम्भ करते हैं। तीर्थंकरों की तपश्चर्या दीक्षा के पश्चात् तत्काल ही मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होने से अरिहंत चार ज्ञान से युक्त होते हैं, देवों से भी पूजित होते हैं, निश्चयपूर्वक मोक्षगामी होते हैं, फिर भी वे स्वयं के बल-वीर्य का गोपन न करते हुए तपविधान में उद्यत रहते हैं; क्योंकि सर्व कर्मक्षय हेतु अरिहंत चारित्र ग्रहण करते हैं और भाव उपधान बाह्य आभ्यंतर तप द्वारा आठों कर्म क्षीण करते हैं। इसीलिए आचारांग नियुक्तिकार तप अनुष्ठान द्वारा कर्मग्रन्थि भेदन का उपादान जानकर बारह प्रकारों की क्रियाओं की प्रधानता दर्शाते हैं और वृत्तिकार इसे अधिक स्पष्ट कर इस प्रकार दर्शाते हैं. तप के सामर्थ्य से ही कर्मों का अवधूनन, धूनन, नाशन, विनाशन, ध्यापन, क्षपण, शुद्धिकरण, छेदन, भेदन, फेडण, दहन, धावन होता है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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