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________________ अरिहंत का तत्व-बोध २१ परमात्मा आत्मप्रदेशों की अपेक्षा से सर्व व्यापक नहीं है। उनके आत्मप्रदेश सीमित क्षेत्र में अवस्थित हैं। किन्तु उनके ज्ञान में सारा संसार झलकता है। इस दृष्टि (ज्ञानदृष्टि) से वे सर्व व्यापक भी कहलाते हैं। __जैन दर्शन के अनुसार परमात्मा ज्ञानस्वरूप है, सत्यस्वरूप है, आनंदस्वरूप है, सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है। परमात्मा का दृश्य या अंदृश्य जगत् में प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई हस्तक्षेप नहीं है। वह जगत् का निर्माता नहीं है, भाग्य का विधाता नहीं है, कर्म-फल का प्रदाता नहीं है, तथा अवतार लेकर संसार में पुनः आता नहीं है। __जीव जो कर्म करता है, उसका फल जीव को स्वतः ही मिल जाता है। आत्मप्रदेशों से सम्बन्धित शुभाशुभ कर्म ही कर्ता हैं, जो जीव को स्वयं अपना फल देते हैं। जैसे मदिरासेवी व्यक्ति पर मदिरा स्वयं ही अपना प्रभाव डाल देती है, वैसे ही कर्म-परमाणु जीव को स्वतः ही अपने प्रभाव से प्रभावित करते हैं। परमात्मा का फलयोग के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है। कर्मफल पाने के लिए जीव को परमात्मा के द्वार नहीं खटखटाने पड़ते हैं। जीव सर्वथा स्वतंत्र है, वह स्वयं कर्ता और स्वयं भोक्ता है। जैन दर्शन की मान्यता है कि जीव स्वयं अपने भाग्य का विधाता है, कर्मों का नियन्ता है, प्रत्येक होने वाली. घटना का निर्माता है और उनके कर्मफल परिणामों का उपभोक्ता है। अपनी जीवन नौका का स्वयं ही तारक-वारक एवं निवारक है, और नैया डुबोने वाला भी घही है। इसमें परमात्मा का कोई हाथ नहीं है। उल्लिखित विवेचन से ऐसा न समझना चाहिये कि जीवों को परमात्मा से कोई मतलब ही नहीं रह जाता है, अतः वे आराध्यरूप उतने नहीं माने जाते होंगे, जितने अन्य दर्शनों में उनके परमात्मा माने जाते हैं। जैनों के परमात्मा परमाराध्य रूप में सर्वमान्य हैं। निष्काम आराधना के लिए यहाँ मात्र उपदेश ही नहीं है, परंतु निष्काम आराधना का मौलिक एवं वास्तविक नमूना भी जैन दर्शन ने प्रस्तुत किया है। यदि अज्ञानवश कोई साधक सकाम भक्ति करता है और परमात्मा उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसका फल प्रदान नहीं करता, फिर भी आराधक की कामना उसके शुभ अध्यवसाय से पूर्ण हो जाती है। यहाँ पर प्रश्न होता है कि यदि हमारी आराधना से आराध्य को कोई मतलब नहीं है तो आराधना का प्रयोजन क्या है? उसका समाधान यही है कि आराध्य को आराधना से मतलब नहीं है परंतु आराधक का आराध्य से तो सम्बन्ध है। अंजन नहीं चाहता कि मैं सेवन करने वाले के नेत्रों की ज्योति बढ़ाऊँ, फिर भी उसके सेवन से दृष्टि बढ़ जाती है। इसी प्रकार परमात्मा का आराधक अपनी प्रबल शुभ भावना के कारण आराधना का फल स्वतः प्राप्त कर लेता है। जैन दर्शन उतारवादी है। उतारवाद का अर्थ है मानव का विकारी जीवन से ऊपर उठकर अविकारी जीवन तक पहुंच जाना, पुनः कदापि विकारों से लिप्त नहीं
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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