________________
४० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम आकार में समय बताती है। अनाज पीसने की चक्की भी गोल होती है और रोटी भी गोल बेलने का रिवाज बनाया गया।
जैसे आँधी और तूफान होते हैं तब हवा गोल घेरे में तेजी से घूमती है। इस प्रकार के तूफानों को बंवडर (Tornado), चक्रवात (Cyclone) तथा हरीकेन (Hurricane) कहते हैं। ये आँधी १६० से ६४० कि.मी. (१00 से ४00 मील) व्यास के क्षेत्र को घेर लेती है और हवा १२० से २00 कि.मी. (७५ से १२५ मील) प्रति घंटे की रफ्तार से चलने लगती है। तेज गति के कारण हवा की गति चक्रदार (Whirling) हो जाती है। इस प्रकार गर्म हवा तेजी से उपर उठने लगती है। ईस्ट इन्डीज और चीन सागर के आसपास इनको टाइफून (Typhoon) कहा जाता है। . महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि यह जब गोलाई में हो जाता है तो केन्द्र इसका मूलस्थान हो जाता है। वह मूलस्थान ही इसका शक्ति केन्द्र है। इसको विस्तृत करने के लिए ही यह मूलस्थान से गोलाई में ऊठता है।
इन सारी बातों से इतना तो निश्चित हुआ कि गोलाई से ही कोई भी चीज : शक्ति को विस्तार का रूप दे सकती है। इसीलिये आचारांग में कहा है “जे गुणे से आवटे, जे आवटे से गुणे" जो विषय (इन्द्रियों के गुणधर्म) हैं वे आवर्त हैं और जो . आवर्त हैं वे विषय हैं। तथा “जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे"-जो विषय है वे (कषाय या संसार के) मूलस्थान है और जो मूलस्थान हैं वे विषय हैं। संसार के टाइफून का मूलस्थान कषाय है। इसी मूलस्थान से चलकर यह पूरे संसार का विस्तार करता है। अब हमें सोचना यह है कि इन वृत्तों से-गोलाइयों से चलने वाली वृत्तियों को कैसे मार्गानुसारिता का रूप दिया जाय।
अरिहंत ने यही चीज संसार को अध्यात्म के द्वारा प्रस्तुत की। खाने-पीने-सोनेचलने के ऐसे तरीके प्रस्तुत किये जिससे हम अन्य जीवों के साथ जीकर उन्हें समाधि दे सकें और स्वयं समाधान पा सकें। उन्होंने यही बताया कि वृत्तों को, गोलाइयों को समाप्त नहीं करना है पर उनकी गति बदलनी है। उनका यह Anti-cyclone system अध्यात्म का गौरव बन गया। जितनी इन्द्रियों की वृत्तियां हैं वे उत्तरावर्ती (Anti-clockwise) चलती हैं; उसे बदल दो, परिवर्तित कर दो और दक्षिणावर्त (Clockwise) चला दो। इन सिद्धांतों को केवलज्ञान से पूर्व अपने जीवन में प्रयोग का रूप देकर ये पूर्णत्व को प्राप्त करते हैं और केवलज्ञान प्राप्त कर स्वयं अशोकवृक्ष, चैत्यवृक्ष या सिंहासन की प्रदक्षिणा कर इसका प्रारंभरूप साधकों को प्रदान करते हैं। प्रदक्षिणा, देशना या विहारादि उनका सहज होता है, कर्तव्यरूप नहीं। ये किसी परंपरा का अनुसरण रूप नहीं है। यह तो उनके पुण्य की वास्तविक प्रभावना है।
प्रदक्षिणा देने से सृष्टि का उत्तरावर्ती वायु बदलकर दक्षिणावर्त हो जाता है और सारे दूषण-प्रदूषण समाप्त हो जाते हैं। अनुकूल वायु का विस्तार हो जाता है। प्रसन्नता