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________________ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . आराधक से आराध्य ९३ साधक के लिए इस प्रकार के पथ-निर्देशक का होना परम आवश्यक है। इससे उसकी शक्ति और पुरुषार्थ का समीचिन उपयोग होता है। ऐसा न होने से कई प्रकार की कठिनाइयां उपस्थित हो जाती हैं। उदाहरणार्थ-कोई श्रमण अति उत्साह के कारण अपने को उग्र तपस्या में लगाये पर उसकी दैहिक क्षमता इस प्रकार की न हो, स्वास्थ्य अनुकूल न हो, मानसिक स्थिरता कम हो तो वह अपने प्रयत्न में जैसा सोचता है, चाहता है, सफल नहीं हो पाता। उसका उत्साह टूट जाता है, वह अपने को शायद हीन भी मानने लगता है। अतएव प्रवर्तक का, जिनमें ज्ञान, अनुभव तथा अनूठी सूझ-बूझ होती है, दायित्व होता है कि वे श्रमणों को उनकी योग्यता के अनुरूप ही उनमें प्रवृत्त करें और योग्यता के प्रतिरूप ही, उनसे निवृत्त करें। .. संयम, तप आदि के आचरण में जो धैर्य और सहिष्णुता चाहिए, जिनमें वह होती है, वे ही उसका सम्यक् अनुष्ठान कर सकते हैं। जिनमें वैसी सहनशीलता और दृढ़ता नहीं होती उनका उस पर टिके रहना सम्भव नहीं होता। प्रवर्तक का यह काम है कि किस श्रमण को किस ओर प्रवृत्त करे, कहां से निवृत्त करे। गण को तृप्त-तुष्टउल्लसित करने में प्रवर्तक सदा प्रयत्नशील रहते हैं। तपस्वी-वात्सल्य ____ तपस्वियों की सेवा करने से भी आत्मा में अरिहंत पद की योग्यता बढ़ती है। तपस्वी, मुनि, ऋषि, अणगार, वाचंमय और व्रती ये साधु के पर्यायवाची नाम हैं। कहा भी है "मुनिवर तपसी ऋषि अणगारजी रे, वाचंयमी व्रती साथ । . गुण सत्तावीश जेह अलंक्या रे, विरमी सकल उपाय ।। - इसका मुख्य कारण जैन संस्कृति की तपः प्रधानता है। पुरातन काल से ही श्रमण संस्कृति का परम पवित्र पुनीत आदर्श तप रूप प्राणतत्त्व में ही रहा हुआ है। श्रमण शब्द श्रम धातु से निष्पन्न होता है; जिसका अर्थ है श्रम करना। दशवैकालिक वृत्ति में आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने तप का अपर नाम श्रम भी दिया है। अतः श्रमण का अर्थ क्षीण काय तपस्वी हो सकता हैं। साधु-तपस्वी के लक्षण सांसारिक उपाधियों से जिन्होंने विराम ले लिया है, जो नव प्रकार के भावलोच (पांच इन्द्रियों का संयम और चार कषायों के निग्रह रूप) और दसवाँ द्रव्यलोच मस्तकादि के केश को लोच करते हैं, पासत्यादि के भेदों से वर्जित, जिसमें १. विजयलक्ष्मी सूरि कृत-"बीस स्थानक पूजा" . २. दशवकालिक वृत्ति १/३ ३. सूयगडांग सूत्र १/६/१, शीलांकाचार्य कृत टीका, पत्र २६३
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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