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________________ ९४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम संसार-सम्बन्धी किसी भी शोक का उद्भव नहीं होता है, दोष रहित आहार के ग्रहण करने वाले, चार प्रकार के अतिक्रम से रहित, पुण्य और पाप को यथायोग्य हेयोपादेय मानने वाले, संसार-मोक्ष को समभाव से देखने वाले, संसार रूप अटवी के त्याग के सच्चे हेतुरूप छठे गुणस्थान को स्पर्शने वाले, अध्यात्म संबंधी और योग संबंधी ग्रन्थों की विचारणा, वांचन और मननादि करने वाले ज्ञान और क्रिया इन दोनों का यथायोग्य प्रधानतः सेवन करने वाले सर्व प्रकार के दंभों एवं जंजालों से रहित और चारित्र रसिक होते हैं। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग सातवें तपस्वी वात्सल्य पद तक के अधिकारी का अवलोकन हो गया, अब आता है अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग यानी ज्ञान का बार-बार उपयोग अर्थात् ज्ञान का निरंतर उपयोग। बीच में अंतर नहीं होवे ऐसा ज्ञानोपयोग। ___ ज्ञान उपयोग रूप है। उसके दो प्रकार हैं-एक तो लब्धि और दूरा उपयोग। लब्धि-नींद में स्पर्श, रसादि ज्ञान का उपयोग नहीं होना है। पांचों ज्ञान का सामर्थ्य सत्ता में है, परन्तु उसका उपयोग नहीं है। कृतार्थत्व उपयोग में है। लक्ष्मी है, परन्तु दान में दी नहीं जाती है, भोगी नहीं जाती है, अंत में उसका नाश तो है ही। ज्ञान लब्धि रूप में हमेशा रहता है परन्तु उपयोग रूप नहीं। यद्यपि अकाल में (अविहित काल में) स्वाध्याय का निषेध है, परन्तु अनुप्रेक्षा का निषेध नहीं है। जगत के स्वरूप की विचारणा हो सकती है। जानने की शक्ति-चेतना समान होने पर भी, जानने की क्रिया-बोधव्यापार व उपयोग-सब आत्माओं में समान नहीं देखा जाता। यह उपयोग की विविधता बाह्य-आभ्यन्तर कारण कलाप की विविधता पर अवलम्बित है। विषय भेद, इन्द्रिय आदि साधन भेद, देश काल भेद इत्यादि विविधता बाह्य सामग्री से सम्बन्धित है। आवरण की तीव्रता-मन्दता का तारतम्य आन्तरिक सामग्री की विविधता है। इस सामग्री-वैचित्र्य के कारण एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न प्रकार की बोधक्रिया करता है और अनेक आत्मा एक ही समय में भिन्न-भिन्न बोध करते हैं। यह बोध की विविधता अनुभवगम्य है। उपयोग के दो विभाग किये जाते हैं १-साकार, २-अनाकार। जो बोध ग्राह्य वस्तु को विशेष रूप से जानने वाला हो-वह साकारें उपयोग। जो बोध ग्राह्य वस्तु को सामान्य रूप से जाननेवाला हो-वह अनाकार उपयोग। साकार को ज्ञान या सविकल्पक बोध और अनाकार को दर्शन या निर्विकल्पक बोध भी कहते हैं।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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