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आराधक से आराध्य ९५
____ अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी आत्मा, श्री जिनेश्वरदेव के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु होता है। निर्जरा करने वाला होता है। आराधना हेतु प्रथम सात पद में श्री अरिहंतादि गुणी विराजमान हैं। सर्चलाइट अच्छी हो परन्तु अक्षर तो तभी स्पष्ट दिखते हैं जबकि आँखें भी अच्छी हों। जैसे अंधे के लिये अच्छी से अच्छी बत्ती भी निरुपयोगी होती है, वैसे ही बिना उपयोग के आराधक को आराध्य की आराधना का तथाविध फल नहीं मिलता है। आराध्य को पहचानने के लिये, उनके गुणों को जानने के लिए और आराधना की विधि अपनाने के लिये ज्ञान आवश्यक है। . आठवें पद में ज्ञान है। नवमें पद में दर्शन है। दर्शन यानी श्रद्धा और ज्ञान यानी बोध। प्रथम गुण तो श्रद्धा का है, फिर भी यहाँ आठवें पद में ज्ञान को स्थान दिया गया, दर्शन से पहले ज्ञान को क्यों स्थान दिया गया ? बिना दर्शन का ज्ञान अज्ञान; फिर भी यहाँ प्रथम ज्ञान को स्थान क्यों दिया गया है ? ____ जब तक आत्मा में कल्याण की बुद्धि न आवे तब तक मोक्ष मार्ग के लिये विश्वास योग्य नहीं हो सकता। विश्वास योग्य कब माना जाय ? जो आस्रव को तथा बंध को हेय (त्याज्य) समझे, जो संवर निर्जरा को उपादेय आदरणीय समझे, जो मोक्ष को परम पुरुषार्थ माने-समझे वही विश्वास योग्य है। लौकिक व्यवहार में भी प्रथम विश्वास की अपेक्षा होती है। विश्वास से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, इसमें आश्चर्य नहीं है। जब. वस्तुस्थिति ऐसी है तो आठवें पद में ज्ञान और नवमें पद में दर्शन है। ऐसा क्रम क्यों दिया गया है ? इसका उत्तर यह हो सकता है कि सम्यक्त्व मात्र तीर्थकरत्व का साधन नहीं है; परन्तु उसकी विशुद्धि तीर्थकरत्व का साधन है। अतः
यहाँ दर्शन विशुद्धि पर ध्यान रखा गया है, यदि दर्शन ही साधन होता तो प्रत्येक • साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका तीर्थंकर हो जाते; क्योंकि सब सम्यक्त्वधारी हैं। तीर्थंकरत्व
का कारण सम्यक्त्व की विशुद्ध निर्मलता है। दर्शन विशुद्धि की पहचान के लिए ज्ञान • आवश्यक है, अतः ज्ञान पद प्रथम लिया गया है। दर्शन .
दर्शन शब्द का अर्थ होता है देखना किन्तु साथ ही प्रश्न होगा क्या देखना या क्या देखा जाता है ? यहाँ दर्शन शब्द का यही वस्तुतः अर्थ है कि-दृश्यते अनेन यथावस्थित मात्मतत्त्वम्' अर्थात् दर्शन वह है जिससे यथावस्थित आत्मतत्त्व देखा जाय।
यद्यपि आत्मा तो अदृश्य है, अमूर्त है। जो अदृश्य और अमूर्त हो वह तो अगोचर ही होता है; परन्तु यहाँ देखना अर्थ आत्म तत्व के ध्यान करने से घटित होता है। आत्मा शब्द का प्रयोग न कर आत्मतत्व शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ दर्शन से मतलब किसी नेत्रगोचर वस्तु का दर्शन नहीं परन्तु आत्मतत्त्व-चैतन्य के जड़ भावों के भेदज्ञान रूप ध्यान से है। १. स्याद्वादकल्पलता-२/९-९ ।