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९२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम रखता है, जो मित्रता को ठुकराता है, जो ज्ञान प्राप्त कर अहंकार करता है, जो स्खलना होने पर दूसरों का तिरस्कार करता है, जो मित्रों पर क्रोध करता है, जो प्रियमित्रों की भी एकान्त में बुराई करता है, जो असंबद्ध प्रलाप करता है, द्रोही है, अभिमानी है, रसलोलुप है, अजितेन्द्रिय है, असंविभागी है-साथियों में बांटता नहीं है और अप्रीतिकर है। __जो हंसी-मजाक नहीं करता है, जो सदा दान्त-शान्त रहता है, जो किसी का मर्म प्रकाशित नहीं करता है, जो आचारहीन न हो, जो रसलोलुप-चटोकरा न हो, जो क्रोध न करता हो, जो सत्य में अनुसक्त हो, इन आठ स्थितियों में व्यक्ति शिक्षाशील होता है। . ___ पन्द्रह प्रकार से व्यवहार करने वाला सुविनीत कहलाता है-जो नम्र है, अचपल है, अस्थिर नहीं है, दम्भी नहीं है, अकुतूहली है-(तमाशबीन नहीं है), किसी की निन्दा नहीं करता है, जो क्रोध को लम्बे समय तक पकड़ कर नहीं रखता है, जो मित्रों के प्रति कृतज्ञ है, ज्ञान को प्राप्त करके अहंकार नहीं करता है, स्खलना होने पर दूसरों : का तिरस्कार नहीं करता है, मित्रों पर क्रोध नहीं करता है, जो अप्रिय मित्र के लिए भी एकान्त में भलाई की ही बात करता है, जो वाक-कलह और मारपीट नहीं करता है, अभिजात (कुलीन) होता है, लज्जाशील होता है, प्रतिसंलीन (इधर-उधर की व्यर्थ चेष्टाएं न करने वाला आत्मलीन) होता है, वह बुद्धिमान् साधु विनीत होता है।
बहुश्रुत और उपाध्याय शब्द का व्याख्यार्थ समान होने से बीस स्थानक सम्बन्धी शास्त्रादि में इस पद को उपाध्याय पद या उपाध्याय वात्सल्य पद कहा गया है। __ आचार्य के बहुविध उत्तरदायित्वों के सम्यक् निर्वहन में सुविधा रहे, धर्म-संघ उत्तरोत्तर उन्नति करता जाए, श्रमणवृन्द श्रामण्य के परिपालन और विकास में गतिशील रहे, इस हेतु अन्य पदों के साथ प्रवर्तक का भी विशेष पद प्रतिष्ठित किया गया। प्रवर्तक पद बहुश्रुत पद का एक रूप है।
प्रवर्तक गण या श्रमण-संघ की चिन्ता करते हैं अर्थात् वे उसकी गतिविधि का ध्यान रखते हैं। वे जिन श्रमणों को तप, संयम तथा प्रशस्त योगमूलक अन्यान्य सत्प्रवृत्तियों में योग्य पाते हैं, उन्हें उनमें प्रवृत्त या उत्प्रेरित करते हैं। मूलतः तो सभी श्रमण श्रामण्य का निर्वाह करते ही हैं पर रुचि की भिन्नता के कारण किन्हीं का तप की ओर अधिक झुकाव होता है, कई शास्त्रानुशीलन में अधिक रस लेते हैं, कई संयम के दूसरे पहलुओं की ओर अधिक आकृष्ट रहते हैं। रुचि के कारण किसी विशेष प्रवृत्ति की ओर श्रमण का उत्साह हो सकता है पर हर किसी को अपनी क्षमता का भली-भांति ज्ञान हो, यह आवश्यक नहीं। प्रवर्तक का यह कर्तव्य है कि वे जिनको जिस प्रवृत्ति के लिए योग्य मानते हों, उन्हें उस ओर प्रेरित और प्रवृत्त करें। जो उन्हें जिस प्रवृत्ति के सम्यक् निर्वाह में योग्य न जान पड़ें, उन्हें वे उस ओर से निवृत्त करें।