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________________ १४८ स्वरूप-दर्शन चुल्लहिमवंत पर्वत के सुवासित गोशीर्ष चन्दन से अग्निहोम (शांतिकर्म) करती हैं, फिर भूमिकर्म कर दोनों को रक्षा पोटली बांधती हैं। फिर भगवान के कर्ण मूल में दो गोल पाषाणों को टकराकर शुभाशीर्वाद देती हैं-"अहो भगवन् ! आप चिरायु हो।" बाद में भगवान् और उनकी माता दोनों को जन्म-भवन में लाती हैं। जन्म की सर्व क्रियाएँ दिशाकुमारियों द्वारा सम्पन्न हो जाने के बाद आगमानुसार तथा कुछ ग्रन्थकारों के अनुसार वे कार्य सम्पन्न कर वहीं गाती हुई खड़ी रहती हैं और उस समय इन्द्रों के आसन चलायमान होते हैं। इन्द्र-देव आगमन ५६ दिशाकुमारियों द्वारा जन्म-महोत्सव के पश्चात् देवताओं के आसन चलायमान होते हैं क्योंकि आसन चालयमान होने के तीन कारणों में अरिहंत जन्म भी एक कारण है। आसन चलायमान होते ही वे अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा अरिहंत भगवान का जन्म हुआ जानते हैं। पादपीठ से नीचे उतरकर मुंह पर उत्तरीय वस्त्र लगाकर प्रभु की . स्तुति करते हैं। सभी देवेन्द्रों की प्रवृत्ति ऐसी ही होती है। प्रथम शक्रेन्द्र (सौधर्मेन्द्र) की आज्ञा से उनका पदात्यानिकाधिपति हरिणैगमेषी-एक योजन विस्तारिणी "सुघोषा" घंटा को तीन बार बजाकर तीर्थंकर के जन्म महोत्सव हेतु सौधर्मेन्द्र के साथ प्रयाण करने की उद्घोषणा करते हैं। इस घंटा के बजाने से अन्य बत्तीस लाख विमानों के घंटों के एक साथ वैसे ही शब्द होते हैं। विमान प्रासादों में प्रतिध्वनित होकर वे शब्द लक्षगम हो जाते हैं। ___ इस महत् प्रतिध्वनि को सुनकर सर्व देव अपनी तैयारी के साथ सौधर्मेन्द्राधिपति के साथ परमात्मा के जन्माभिषेक महोत्सव हेतु प्रस्थित होते हैं। सौधर्मेन्द्र के साथ आने वाले देव-समूह में कुछ वंदनार्थ आते हैं, कुछ पूजार्थ, कुछ तीर्थंकर के वचनों के अनुवर्ती बनकर और कुछ-यह हमारा जीताचार है, ऐसा मानकर आते हैं। . शक्रेन्द्र की आज्ञा से पालक नामक देव वैक्रिय समदघात द्वारा मणिरत्न वेष्टित एक लाख योजन के विस्तार वाले देवयान-विमान की विकुर्वणा करता है। सौधर्मेन्द्र अपने चौरासी हजार सामानिक देवों के परिवार सहित मनुष्य लोक में तीर्थंकर भगवान के पास आते हैं। स्थानांगसूत्र में इसका स्पष्ट उल्लेख है कि अरिहंत के जन्म, प्रव्रज्या एवं ज्ञानोत्पाद महिमा के समय देव-समागम यानी मनुष्य लोक में देवागमन होता है। ___ उस दिव्य विमान से युक्त सौधर्मेन्द्र तीर्थंकर के जन्म-नगर में जन्म-भवन तक आते हैं। उस भवन की दिव्य-यान विमान से तीन बार प्रदक्षिणा करके भगवानतीर्थंकर के जन्म भवन से ईशानकोण में पृथ्वी से चार अंगुल ऊंचा दिव्य यान-विमान रखते हैं, फिर आठ अग्रमहिषियों और गंधर्वानीक व नृत्यानीक उस विमान के पूर्व
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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