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________________ जन्म-कल्याणक १४७ ...................................... . . . . ३. पुण्डरीका ४. वारुणी ५. हासा (वासा) ६. सर्व प्रभा ७. श्री ८. ही ७. विदिशा की रुचिकाद्रि निवासिनी दिशाकुमारियां उनकी प्रवृत्ति १. चित्रा . २. चित्रकनका ३. सुतेरा ४. वसुदामिनी जिनेश्वर की माता के चारों ओर विदिशाओं में हाथ में दीपक लेकर खड़ी रहती हैं। ८. मध्य रुचिकादि निवासिनी १. रूपा २. रूपांशा ३. सुरूपा ४. रूपकावती उनकी प्रवृत्ति-ये चार दिशाकुमारियां तीर्थंकर के चार अंगुल छोड़कर शेष नाभिनाल का छेदन कर उसे गड्ढे में गाढ़ देती है, फिर उस गड्ढे को रल व . वज्ररत्नों से भरती हैं और उस पर हरतालिका पीठ बाँधती है। बाद में जिनेश्वर के जन्म गृहं के दक्षिण, पूर्व और उत्तर तीन दिशाओं में मनोहर कदलीगृह की रचना करती हैं। उसके मध्यभाग में चतुःशाल भुवन रचती है और उसमें तीन सिंहासन बनाती हैं। प्रथम भगवान सहित माता को दक्षिण दिशा के कदलीगृह में सिंहासन पर बैठा कर शतपाक, सहस्रपाक आदि सुवासित तेलों से उनका अभ्यंगन (मर्दन) करती है। बाद में पूर्व दिशा के कदलीगृह के सिंहासन पर दोनों को बैठाकर गंधोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदक ऐसे तीन प्रकार के पानी से स्नान कराती है और सुवासित कोमल गंध काषायी वस्त्रों द्वारा अंग पोंछकर उनको घनसार अगरु से मिश्रित हरिचन्दन का विलेपन करती हैं। देवदुष्यादि वस्त्रालंकार से दोनों को सुसज्जित कर उत्तर दिशा के कदलीगृह में ले जाकर आभियोगिक देवताओं द्वारा मंगवाये गये
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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