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९० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
गुरु-शिष्य का संबंध वात्सल्य में परिणत हो जाने पर गुरु का प्रत्येक शब्द शिष्य के लिये वरदान बन जाता है और शिष्य का समर्पण गुरु की पवित्रता का परिणाम बन जाता है।
परम गुरु का योग, महान पुण्य के उदय से मिलता है। गुरु के प्रति समर्पण के साथ उनके शुभ विचारों से प्यार, गुरु को अप्रिय प्रवृत्ति का तिरस्कार तथा गुरु की आज्ञा का स्वीकार गुरु-वात्सल्य है। गुरु की आज्ञा का बहुमान सम्यग्दर्शन है और गुरु की आज्ञा का पालन यह सच्चा नमस्कार है। गुरु की सेवा, नमस्कार एवं बहुमान करने से आत्मा की शुद्ध पर्याय जागृत होती है और शुभ परिणामों की तीव्रता के कारण महान् शुभ पुण्य का उपार्जन होकर तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध हो जाता है। जिससे वह भव्यात्मा स्वतः जगद्गुरु-तीर्थाधिपति के पद को प्राप्त होकर अनेक भव्यात्माओं का तारक बन जाता है।
तत्त्वार्थसूत्र अध्ययन ६ के २४वें सूत्र में जहां तीर्थंकर नामकर्म के १६ कारणों का निर्देशन है वहां गुरुभक्ति के स्थान पर “आचार्य-भक्ति" शब्द का ही प्रयोग हुआ
भगवान महावीर के धर्मसंघ में आचार्य (धर्माचार्य) का पद अप्रतिम गौरवगरिमापूर्ण और सर्वोपरि माना जाता है। जैन धर्म में संघ के संगठन, संचालन, संरक्षण, संवर्द्धन, अनुशासन एवं सर्वतोमुखी विकास अभ्युत्थान का सामूहिक एवं मुख्य उत्तरदायित्व आचार्य पर रहता है। समस्त धर्म संघ में उनका आदेश अन्तिम निर्णय के रूप में सर्वमान्य होता है। यही कारण है कि जिनवाणी का यथातथ्य रूप से निरूपण करने वाले आचार्य को तीर्थंकर के समान और सकल संघ का नेता बताये गये हैं। स्थविर-वात्सल्य
जैन संघ में स्थविर का पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्मार्ग में प्रवृत्त मनुष्य को जो सन्मार्ग में स्थिर करे उसे स्थविर कहते हैं। स्थानांग? सूत्र में स्थविर के दस प्रकार बताये हैं। १. ग्राम स्थविर-जो गाँव की व्यवस्था करता है। सत्ता के द्वारा ये अपराधियों
को दंडित कर उसे सन्मार्ग पर लाते हैं। २. नगर स्थविर-नगरपालिका वाले जो विधानों के द्वारा व्यक्ति को सन्मार्ग पर
लाते हैं। आज के युग में जो मेयर कहलाते हैं वे नगर-स्थविर होते हैं। ३. राष्ट्र स्थविर अनेक प्रान्तों के समुदाय को राष्ट्र कहते हैं। राष्ट्रस्थविर प्रान्तों
___ के माध्यम से व्यक्ति की सुरक्षा करते हैं। १. स्थानांग सूत्र, स्थान १0, सूत्र ७६२-सवृत्ति