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________________ आराधक से आराध्य ८९ . . . . . . . अरिहंत-प्रवचन-सर्वज्ञ-वचन को हृदयांकित करने से अर्थात् चित्त में स्थापित करने से परमार्थ से सिद्धान्त द्वारा मुनींद्र सर्वज्ञ भगवान् की हृदय में स्थापना हो जाती है। अतः परमात्मा के हृदय में प्रतिष्ठित होते ही आत्मा स्वयं की सर्व अभीष्ट सिद्धियों को नियमेन अविलम्ब उपलब्ध कर सकता है। प्रवचन वात्सल्यवान् आत्मा के रोम-रोम से यही उद्गार निकलते हैं-"अयमाउसो! णिग्गंथे पावयणे सच्चे, अयं अट्टे, अयं परमठे, सेसे अणठे।" जिनेश्वर भगवन्तों का धर्म-शासन ही सत्य है। उनका बताया हुआ शाश्वत सुख का देने वाला मोक्षमार्ग ही सत्य, तथ्य और परमार्थ है। इसके सिवाय सभी बातें, सभी विषय, सभी प्रवचन और सभी अभिप्राय, अनर्थकारक हैं-दुःखदायक हैं। मैं दुर्भागी हूं जो, उन परम तारक के बताये हुए परमार्थ का सेवन नहीं कर सकता, उलटा विपरीत मार्ग-संसार-मार्ग पर चल रहा हूं। संसार बढ़ाने के कार्य कर रहा हूं। यह मेरी दुर्बलता है, अधम दशा है। मैं आत्म-शत्रुओं के प्रभाव में आकर अधर्म का आचरण कर रहा ___ अर्हत् प्रवचन के प्रति हार्दिक श्रद्धा, स्नेह और उसका स्वाध्याय करना तथा अन्य जिज्ञासुओं के अन्तःकरण में प्रवचन की प्रतिष्ठा करना प्रवचन वात्सल्य है। प्रवचन की भक्ति करना, अरिहन्त परमात्मा की भक्ति करने के समान है। प्रवचन वात्सल्य वही करेगा, जिसकी उसमें रुचि होगी, अटूट श्रद्धा होगी। जिन प्रवचनों में रुचि का परिणाम दर्शाते हुए कहा है जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेणं । ' अमला असंकिलिट्ठा, ते हुति परित्तसंसारी ॥ : जिन प्रवचनों में अनुरक्त रहने वाली पवित्रात्मा; अनन्त संसार भ्रमण को रोक कर परिमित संसारी हो जाती है। यह बात तो साधारण है। किन्तु यदि किसी भव्यात्मा में भावों की तीव्रता हो-उत्कृष्ट भक्ति हो, तो वह तीर्थंकर नाम-कर्म का भी उपार्जन कर लेते हैं। प्रवचन वात्सल्य करने वाला स्वयं प्रवचनकार-जिनेश्वर बन जाता है। वर्तमान चौबीसी के तीसरे तीर्थंकर संभवनाथस्वामी ने इस प्रवचन-वात्सल्य की साधना करके ही तीर्थंकर पद उपार्जित किया था। गुरु वात्सल्य ___ गुरु आत्म-बोध की प्रेरणा के शुभ स्रोत हैं और गुरु-वात्सल्य, आत्मीय सम्बन्धों की सचेतन व्याख्या है। गुरु और शिष्य का सम्बंध केवल एक परम्परा नहीं परंतु श्रद्धा और समर्पण का, निष्ठा और अनुशासन का अनुबंध है। गुरु के बिना निर्वाण और परमसत्ता की प्राप्ति का पथ बेबूझ, अनचीन्हा और अनजाना रहता है। गुरु की अनुग्रह भरी नजर से वह पहेलियां बूझ जाती हैं, वह अनचीन्हा पथ परिचित हो जाता है, उस अनजान राह पर भी प्रत्येक कदम को प्रगतिशील वरदान प्रदान करती है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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