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निर्वाण-कल्याणक २५९ का अंतिम कल्याणक है, अतः इसे भी इन्द्र अपने जीताचार रूप सर्व अंतिम विधि से यथावत् पालते हैं।
जिस समय अरिहंत भगवान का निर्वाण होता है, वे संसार के कार्य से निवर्तते हैं, जन्म-जरा-मरण का बन्धन छेद कर, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं, सर्व दुःखों से रहित होते हैं। उस समय शक्र देवेन्द्र देवराज का आसन चलित होता है। अवधिज्ञान के प्रयोग से परमात्मा का निर्वाण हुआ जानकर अपने त्रिकालवर्ती जीताचार रूप महोत्सव मनाने के लिये निज-देव देवियों के परिवार सहित उत्कृष्ट-दिव्य देव गति-से असंख्यात द्वीप समुद्रों के मध्य होते हुए जहां तीर्थंकर भगवान का शरीर होता है वहां आते हैं और विमन-शोकाकुल मन से आनंदरहित, अश्रुपूर्ण नयनों से तीर्थंकर के शरीर की तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं। न अधिक दूर से न अधिक नजदीक से सेवा करते हुए पर्युपासना करते हैं।
___ आगम में प्रभु के निर्वाण के बाद ही इन्द्रागमन का उल्लेख है। परंतु कुछ चरित्रकारों के अनुसार परमात्मा के निर्वाण पधारने के पूर्व जब परमात्मा अनशन व्रत अंगीकार करते हैं उसी समय इन्द्रों के आसन कांपते हैं और अवधिज्ञान से आसनों के कांपने का कारण जानकर सर्व (चौंसठ) इन्द्र प्रभु के पास आते हैं।
कुछ चरित्रकारों के अनुसार अनशन के और पर्वतारोहण के पूर्व ही इन्द्र आ जाते हैं और तत्काल परमात्मा के पास जाकर समवसरण की रचना करते हैं, उसमें विराजमान परमात्मा अंतिम देशना देते हैं और बाद में वहां से प्रस्थित होकर पर्वत के किसी शिखर पर आरूढ़ होकर एक मास का अनशन करते हैं। इस समय अत्यंत प्रीति से युक्त सर्व देवेन्द्र अपने परिवार से युक्त त्रिभुवननाथ की सेवा करते हैं। यह सेवा वे कब तक करते हैं एवं कब परमात्मा का सान्निध्य छोड़कर वे स्वस्थान लौट जाते हैं यह तो अव्यक्त है परंतु परमात्मा के निर्वाण के पश्चात् उनके पुनरागमन को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा है कि "परमात्मा के निर्वाण के पश्चात् सर्व देवेन्द्र अपने-अपने देव-देवियों के परिवार से युक्त शोक से अश्रुपात करते हुए प्रभु के गुणों का स्मरण करते हुए वैक्रिय रूप से पृथ्वी पर आते हैं एवं विलाप करते हैं। अंतिम विधि
अरिहंत परमात्मा का देहविलय हो जाने पर देवेन्द्र आभियोगिक देवों द्वारा तीन चिताओं की रचना करवाते हैं। अरिहंत परमात्मा के शरीर के लिए पूर्वदिशा में एकान्त स्थान में एक गोलाकार चिता बनाते हैं, गणधर अथवा इक्ष्वाकुवंश के महर्षियों के लिए दक्षिण दिशा में त्रिकोणाकार चिता रचते हैं और अन्य साधुओं के लिए पश्चिम में चौरस चिता रचते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य चारित्रकार जिनेन्द्रदेव के देह के लिए चिता योग्य दिशा नैऋत्यकोण बताते हैं। दूसरे साधुओं के लिये जो चिता बनाई जाती है, इसकी दिशा का कोई उल्लेख नहीं है।