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२५८ स्वरूप-दर्शन ___३. निश्चयनय के अनुसार सर्व संवर शील है-“शील" यानी “समाधान" अर्थात् आत्मप्रदेशों का आत्मस्वभाव का सम्यक् आधान, सम्यक् स्थापन। आत्मा का मूलभूत स्वभाव सर्व-आश्रव रहितता, सर्व संवर स्थिरता है एवं वही शील है। शील के स्वामी शील को और शीलेश शब्द को स्वार्थ में "अ" प्रत्यय लगता है तब प्रथम स्वर "शी" का "शे" होता है। अतः शीलेश से शेलेश हुआ। शैलेश की अवस्था को शैलेशी कहते हैं और प्राकृत में इसका "सेलेसी" होता है। सेलेशी शब्द की इस व्याख्या के अनुसार यह "सर्वसंवर की अवस्था" होती है।
सर्व कर्मों का क्षय होने के पश्चात् परमात्मा औदारिक, तेजस एवं कार्मण इन शरीरों को सर्वथा छोड़कर ऋजु-अवक्र आकाश के प्रदेशों की पंक्तिमय श्रेणी को आश्रित करते हुए, अन्तराल के प्रदेशों को नहीं स्पर्शते हुए एक समय में सीधी गति से सिद्धगति में विराजमान हो जाते हैं। यहां उनका उपयोग साकार होता है अर्थात् ज्ञानोपयोग से युक्त होता है।
अरिहंत परमात्मा के सर्व कल्याणक पर्व में सारे लोक में उद्योत होता है। अतः निर्वाण के समय भी सर्व लोक द्रव्य उद्योत से क्षणभर के लिए झलक उठता है। परंतु इसके साथ ही भावों की विपरीत स्थिति भी पाई जाती है और परमात्मा के निर्वाण से सर्वत्र भावान्धकार व्याप्त हो जाता है। क्योंकि संशयरूप अंधकार का नाश करने वाले तीर्थपति सूर्य के अस्त. हो जाने से नाथ के अभाव में शासन सूना हो जाता है। भवजलतारिणी धर्मदेशना बंद हो जाती है। मोहांधकार एवं मिथ्यात्वांधकार सर्वत्र व्याप्त हो जाता है। परमात्मा के शरण से रहित हुए अरिहंत-प्रेमी जनों, की विरहवेदना से सारी पृथ्वी संवेदनशील हो जाती है। तीनों भुवन मानों पुण्य विहीन बन गये हों वैसे परमात्मा के अभाव में सर्वत्र अंधकार सा ही प्रतीत होता है। . __ ऐसा सब कुछ हेते हुए भी परमात्मा का निर्वाण कल्याणक ही माना जाता है क्योंकि सर्व साधना का परम उद्देश्य तीर्थंकरों का भी मुक्ति का ही होता है। सिद्ध स्थिति से उत्कृष्ट अन्य कोई उच्च स्थिति भी तो नहीं है। जन्म-मरण रूप संसार का परमात्मा ने विच्छेद कर दिया। अतः परमात्मा शोक के पात्र नहीं हैं। उनका नाम लेने से निवृत्ति (मुक्ति) होती है, स्मरण करने से सिद्धि मिलती है और शरण-ग्रहण से मनवांछित पूर्ण होते हैं। इसी कल्याणक स्थिति के कारण सुख का लेश भी नहीं जानने वाले नारकीयों की दुःखाग्नि भी क्षणभर के लिए शांत होती है एवं क्षणमात्र उन्हें भी सुख प्राप्त होता है। निर्वाण महोत्सव
च्यवन से लेकर निर्वाण तक के प्रत्येक कल्याणक के प्रत्येक अवसरों को इन्द्र अपने परिवार सहित महोत्सव रूप में मनाते हैं। निर्वाण-कल्याणक अरिहंत परमात्मा