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________________ २६० स्वरूप-दर्शन भवनपति, वैमानिक आदि देवों द्वारा निर्मित जिन शिबिका में शक्र देवेन्द्र देवराज शोक सहित आनंद रहित नेत्रों से अश्रुसहित जन्म-जरा-मरण का नाश करने वाले तीर्थंकर भगवान के शरीर को शिबिका में आरूढ़ करते हैं। इस समय इन्द्र परमात्मा के देह को नमस्कार कर उसे अपने मस्तक पर उठाकर पालकी में रखते हैं। एक हजार देवों से उठाई जाए ऐसी उस जिनशिबिका को उठाकर चिता के पास ले जाकर चिता पर रखते हैं। तीर्थंकर की चिता पर अग्निकुमार देवों द्वारा अग्निकाय की विकुर्वणा कर अग्नि प्रज्वलित की जाती है, वायुकुमार देवों द्वारा वहाँ वायुकाय की विकुर्वणा की जाती है, और तीर्थंकर के शरीर का अग्निसंस्कार किया जाता है। रक्त एवं मास. के जल जाने पर मेघकुमार देव सुवासित क्षीरोदक की वर्षा करते हैं। चिता के बुझ जाने पर स्वयं के विमान में पूजा करने हेतु तथा जय मंगल हेतु देवेन्द्र दाढ़ों को ग्रहण करते हैं। जिनेन्द्र भगवान की मंगलकारी कल्याण के बीजरूप ऊपर की दाहिनी दाढ़ को शकेन्द्र, ऊपर की बाई दाढ़ को ईशानेन्द्र, नीचे की दाहिनी दाढ़ को चमरेन्द्र (असुरेन्द्र), और नीचे की बाई दाढ़ को बलीन्द्र (वैरोचनेन्द्र) ग्रहण करते हैं। अत्यन्त भक्ति भाव से रोमांचित अवशिष्ट देव-देवेन्द्रों में से कुछ तीर्थंकर की भक्ति के वश होकर, कुछ अपने-अपने मंगलहेतु अवशिष्ट दाढ़, दांत एवं अस्थि के टुकड़ों को ग्रहण करते हैं। राजादि मानव समुदाय भस्म ग्रहण करते हैं। तत्स्थान पर शक्रेन्द्र की आज्ञा से भवनपति वैमानिकादि देव रत्नमय महाआलयवाले चैत्य स्तूप का निर्माण करते हैं। पूर्वोक्त प्रवृत्ति के पश्चात् सर्व देव-देवियों के समूह के साथ सर्व देवेन्द्र नन्दीश्वरद्वीप में जाकर वहाँ अंजनगिरि पर्वत पर भिन्न-भिन्न दिशा में आठ दिन तक निर्वाण महोत्सव की महामहिमा करते हैं। इसे अष्टान्हिका महोत्सव कहते हैं। इस महोत्सव को समाप्त कर सर्व देव-देवेन्द्र स्वस्थान. लौटते हैं एवं दाढ़, अस्थि आंदि वस्तुएँ अपने-अपने सदनों (भवनों) अथवा विमानों में सुधर्मा सभाओं के अंदर माणवक स्तंभ पर वज्रमय गोल डिब्बे में रखकर प्रतिदिन उसकी पूजा करते हैं। इसके प्रभाव से उनकी हमेशा विजय होती है, ऐसा उनका मानना है। ___ आदिपुराणादि दिगम्बर ग्रन्थों में भी निर्वाण-विधि की प्रायः वैसी ही योजना प्रस्तुत की गई है। यहां केवल भस्मादि ग्रहण में इन्द्रादि के द्वारा भस्म उठाकर "हम लोग भी ऐसे ही हों" ऐसा सोचकर बड़ी भक्ति से अपने ललाट पर, दोनों भुजाओं पर, गले में और वक्षस्थल पर लगाते हैं, ऐसा कहा है। भरतेश वैभव में इससे बिलकुल विपरीत कहा है। यहां भगवान ऋषभदेव के मुक्तिगमन संधि में इन्द्रों द्वारा देहिक अग्नि संस्कार विधि का कोई उल्लेख नहीं है परंतु इस अवसर पर जिन देह के अदृश्य हो जाने की नयी बात बताई है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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