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________________ २४0 स्वरूप-दर्शन मोक्ष मोक्ष का हेतु विषय कषाय योग राग-द्वेष बंध बंध का हेतु -संवर कर्म पुद्गल कर्मे पुद्गल -निर्जरा + कषाय पुण्य-पाप आश्रव. मिथ्यात्व प्रमाद अविरति -क्षायिक भाव जीव और पुद्गल का यह सम्बन्ध अनादिकाल से है। जब तक यह सम्बन्ध नहीं टूटता है तब तक पुद्गल जीव पर और जीव पुद्गल पर अपना-अपना प्रभाव डालते रहते हैं। जो पुद्गल आत्मा की प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट होकर एकरसीभूत होते हैं वे कर्म कहलाते हैं। अर्थात् कर्म आत्मा के निमित्त से होने वाला पुद्गल परिणाम है। कर्म पुद्गल सर्वप्रथम आकर्षित होते हैं बाद में उनका बंध होता है और परिपाक दशा में ये जीव को प्रभावित करते हैं। सृष्टि का यह नियम है जो परमाणु समूह स्थूल होता है उनकी शक्ति अल्प होती है और जो परमाणु समूह सूक्ष्म होता है उनका सामर्थ्य अधिक होता है। कर्म ग्रहण की प्रवृत्ति सूक्ष्म होती है इसलिए इनका सामर्थ्य प्रचुर होता है। कर्म का आत्मा पर प्रत्यक्ष प्रभाव और शरीर पर परोक्ष प्रभाव होता है। इसलिए जीव के बद्ध कार्मिक-पुद्गलों को द्रव्य कर्म और जीव के राग-द्वेषात्मक परिणाम को
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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