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________________ केवलज्ञान-कल्याणक १९१ असंभव है, फिर भी दूसरी तरह से विचारने पर (दिया गया यह अंतर यदि बराबर है ऐसा मान लिया जाय तो) ऐसा लगता है कि सोपान चढ़ने के क्रमारोह की मूल दिशा कुछ परिवर्तन वाली होनी चाहिये। और वह भी इस प्रकार की “सीधी दिशा में कुछ सोपान चढ़ जाने पर, आगे के सोपान को काटकोन में घुमा देने पर (diversion कर) विदिशा में ६00 से ८00 सोपान ऊपर जाने पर घुमाव को पुनः मूलदिशा में काटकोण से मिला दिया जाय। इस प्रकार की रचना से मूल दिशा (परमात्मा के प्रति) का सीधा अंतर मात्र २० से २५ सोपानों जितना रहता है जब कि ऊपर जाने का क्रम नियमतः उतना ही होता है। दूसरी तरह से इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि पूर्व द्वार से चढ़ने वाला साधक पूर्व द्वार से जब १८९६ सोपान चढ़ जाता है, तब उसका मोड़ दक्षिण की ओर हो जाता है और वहाँ उसे ६०४ सोपान मिलते हैं, उसके चढ़ जाने पर दूसरा मोड़ उत्तर दिशा का आता है, इस मोड़ पर भी उसे ६०४ सोपान आते हैं, उन सोपानों को जब वह आरोहण कर लेता है उसे तीसरा मोड़ पश्चिम दिशा का मिलता है, इस मोड़ पर मुड़ जाने पर वह पुनः पूर्ववत् पूर्व दिशा पर चढ़ना शुरू करता है और यहाँ उसे १८९६ सोपान पार करने होते हैं, इनका आरोहण कर लेने पर वह भव्यात्मा द्वितीय प्राकार का द्वार एवं प्रतर प्राप्त करता है। पूर्व दिशा की तरह ही अन्यत्र त्रिदिशा की भी संरचना समझ लेनी चाहिए। इस प्रकार स्वाभाविक ही अल्प स्थान में उतने सोपान समा सकते हैं। सर्व दिशाओं में इसी प्रकार की रचना विधि से यह समवसरण अधिकाधिक सुंदर एवं देदीप्यमान दिखाई देता है। . उपरोक्त समाधान अपूर्ण ज्ञान-दृष्टि से विचारा गया है, तत्व तो केवलीगम्य है। फिर भी प्राकार-अंतर, सोपान और सोपान-रचना आदि में बीच की बातों को नहीं विचारने पर, साधक का लक्ष्य तो परमार्थ का ही होता है। सामान्य व्यक्ति (यहाँ मार्गानुसारी) की दृष्टि से इसका परमार्थ विचारने पर तो परमात्म-गुणों के प्रकट होने से उनको प्राप्त समवसरण आदि की भव्यता सामान्य व्यक्ति के आत्म-ऐश्वर्य स्वयं में भी प्रकट होने में सहायक हैं। ऐसे ही कुछ प्रशस्त मोह में भव्यात्मा परमात्म-भक्ति और . तदनंतर आत्म भक्ति में आल्हादक भाव से संयुक्त होता है। बहुधा यह संयुक्तता अनेकों जीवों के अनंत कर्मों की निर्जरा के कारण रूप बनती है, भव्यात्मा निरावरण होकर परमपद के प्रति संयोजित होता है। वृत्त और चतुष्कोण समवसरण में इनके अतिरिक्त एक और भी अन्तर पाया जाता है वह यह कि समवसरण रचना कल्प के अनुसार वृत्त समवसरण में बाह्य प्राकार में दो-दो वापिकाएँ और चतुष्कोण समवसरण में एक-एक वापिका होती है और समवसरणस्तव के अनुसार इससे उल्टा अर्थात् चतुष्कोण समवसरण में दो-दो वापिकाएँ और वृत्त समवसरण में एक-एक वापिका होने का उल्लेख है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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