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१९२ स्वरूप-दर्शन
यद्यपि महावीर चरियं, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र आदि में हरेक द्वार पर वापिका होने का उल्लेख है। संख्या यहाँ नहीं दर्शायी है। श्री पद्मानंद महाकाव्य में वापिका का वर्णन करते हुए कहा है "रजत के विशाल वप्र के भीतर दोनों ओर वापिकाएँ सुशोभित होती रहती हैं, इनमें सुवर्ण कमल प्रफुल्लित हुए रहते हैं, इनका जल स्वादिष्ट एवं निर्मल रहता है, इन वापिकाओं के जल के दर्शन मात्र से चित्त को आल्हाद होता है, स्पर्श करने से खेद दूर होता है और पान करने से व्यक्ति निरोगी रहता है।"
इन वर्णनों को देखने से ऐसा लगता है कि वापिकाओं की संख्या अनिश्चित ही रहती है। चरित्रों में यद्यपि कहीं भी वृत्त या चतुष्कोण का कोई विभेद नहीं दर्शाया गया है।
समवसरण की सम्पूर्ण सामान्यभूमि का एवं समवसरण के आकार का वर्णन पूर्व. ही दे चुके हैं, यहाँ पर अब दिगम्बर ग्रन्थों में जो अन्तर आता है, उसका उल्लेख किया जाता है।
समवसरण की सम्पूर्ण सामान्यभूमि का आकार दर्शाते हुए कहीं सूर्यमण्डल के सदृश गोल' इन्द्रनीलमणिमयी और कहीं चौकोर (चतुष्कोण ) २ आकार की बतायी है। इसका विशेष स्वरूप दर्शाते हुए कहा है - इसकी भूमि कमल के आकार की होती है, और गन्धकुटी तो कर्णिका के समान ऊँची उठी होती है और बाह्यभूमि कमलदल के समान विस्तृत होती है। यह इन्द्रनीलमणि से निर्मित होती है। इसका बाह्य भाग दर्पणतल के समान निर्मल होता है। देशकाल के अनुसार समवसरण भूमि का उत्कृष्ट विस्तार बारह योजन और जघन्य विस्तार एक योजन है। तिलोयपण्णत्ति में तीर्थंकरों के समवसरण का अलग-अलग विस्तार दर्शाते हुए कहा है- भगवान ऋषभदेव के समवसरण की भूमि बारह योजन प्रमाण विस्तार से युक्त थी, बाद में भगवान अजितनाथ से लेकर नेमिनाथ पर्यन्त के प्रत्येक तीर्थंकर के समवसरण की सामान्यभूमि दो कोस कम और पार्श्वनाथ स्वामी एवं वर्धमान स्वामी की योजन के चतुर्थ भाग से कम थी। यहाँ जो सामान्यभूमि का प्रमाण बतलाया गया है, वह अवसर्पिणी काल का है। उत्सर्पिणी काल में इस से विपरीत है। विदेह क्षेत्र के समस्त तीर्थंकरों के समवसरण
भूमि बारह योजन प्रमाण ही रहती है। कोई आचार्य पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों की समवसरण भूमि को बारह योजन प्रमाण मानते हैं।
सोपानों की लम्बाई और चौड़ाई बताते हुए कहा है-वृषभादिक चौबीस तीर्थंकरों में से भगवान् नेमिनाथ पर्यन्त क्रमशः चौबीस और एक योजन कम चौबीस को चौबीस से
१. तिलोयपणत्ति - चउत्थो महाधियारो गा. ७१६ (पूर्वाद्ध) ।
२. हरिवंशपुराण - सर्ग ५७, श्लो. ६-८ ।