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आराधक से आराध्य १२३
स्वसंवेदन ज्ञान से निर्मल ज्ञान, दर्शन रूप स्वभाव के धारक निज शुद्ध आत्मा का जो प्रकाशन अर्थात् अनुभव है वह निश्चय प्रभावना है। यही प्रभावना तीर्थकर नामकर्म के उपार्जन का अपूर्व कारण बन जाती है।
यहाँ व्यवहार-प्रभावना को निश्चय-प्रभावना का आधार माना गया है। यही कारण है जो विजयसेठ और विजयासेठानी को भोजन देने हेतु आमन्त्रणदाता ने समस्त आर्हतों को निमन्त्रण दिया और व्यावहारिक प्रभावना की। उस युगल की वास्तविक शील पालन की सत्यता सिद्ध हुई। उत्तर मथुरा में, जिनमत प्रभावना करने का स्वभाव है-जिसका ऐसी उरविला महादेवी को प्रभावना के निमित्त जब उपसर्ग हुआ तब वज्रकुमार नामक विद्याधर श्रमण ने आकाश में जैनरथ को फिराकर धर्म की प्रभावना की।
बौद्धों द्वारा जैन शासन पर होने वाले कुप्रभावों को अपनी आत्मशक्ति से पराभूत कर महासूरि मेरुप्रभ ने उत्तमोत्तम शासन-प्रभावना द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया। . . ..