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२१२ स्वरूप-दर्शन ही दिशाओं को अपनी सुगंध से व्याप्त कर रहा है। तिलोयपण्णत्ति में सिंहासनों की ऊँचाई तीर्थंकर के बराबर बताई है। भामण्डल __ भामण्डल प्रातिहार्य प्रत्यक्ष परमात्मा के दर्शन में और अप्रत्यक्ष परमात्मा के ध्यान में अत्यन्त उपयोगी प्रातिहार्य है। समवायांग सूत्र के अंतर्गत इस मामण्डल का स्वरूप दर्शाते हुए कहा है-इसिं पिट्ठओगडठाणमि तेयमंडलं अभिसंजायई अंधकारे वि. य णं दस दिसाओ पमासेई। अर्थात् भगवन्त के मस्तक के बहुत ही नजदीक पीछे के भाग में तेजोमण्डल प्रभावों का एक वर्तुल घाति कर्मों का क्षय होते ही समुत्पन्न होता है। यह २.जोमण्डल अंधकार में भी दसों दिशाओं को प्रकाशित करता है। यहाँ भामण्डल को तेजोमण्डल नाम दिया गया है। अभिधान चिंतामणि में भामण्डल की व्याख्या करते हुए .
कहा है
“भानां प्रमाणां मण्डलं भामण्डलम्" अर्थात् भा-प्रभा, मण्डलं-वर्तुल। प्रभा-तेज का वर्तुल भामण्डल कहा जाता है। .
यह भामण्डल आकाश को प्रकाशित करने वाला, सूर्य के आकार को धारण करने वाला, परमात्मा के शरीर को उल्लसित करने वाला, अतिसुन्दर बारह सूर्यों की कांति से भी अधिक तेजस्वी, मनोहर होता है। इसकी तेजस्विता तीनों जगत के द्युतिमान पदार्थों की धुति का तिरस्कार करती है।
भामण्डल की आवश्यकता दर्शाते हुए वर्धमान देशना में कहा है-भगवन्त का रूप अति तेजस्वी होता है, अतः दर्शनार्थी को दर्शन अतिदुर्लभ होते हैं। उनके सर्व तेज का एक पिंड होकर परमात्मा के मस्तक के पीछे भामण्डल के रूप में रह जाता है। अतः परमात्मा के दर्शन करने की अभिलाषा वाले जीव उनके रूप को आनंद से देख सकते हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय की ऐसी भी मान्यता है कि भव्यात्मा इस भामण्डल में अपने बीते तीन भव, एक वर्तमान और आगामी तीन भवों को देख सकता है। दुंदुभि
परमात्मा के सान्निध्य में ऊपर आकाश में भुवनव्यापी दुंदुभि ध्वनि होती है। प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में "भैरि" और "महाढक" इसके पर्यायवाची शब्द कहे हैं।
दुंदुभि-नाद सुनते ही आबाल वृद्ध जनों को अत्यधिक आनंद का अनुभव होता है और देवाधिदेव अरिहंत के आगमन की सूचना भी सर्वजनों को एक साथ मिलती है। तीनों जगत् के सर्व प्राणियों को उत्तम पदार्थ की प्राप्ति में यह दुन्दुभि समर्थ है। सद्धर्मराज अर्थात् परम उद्धारक तीर्थंकर भगवान की समस्त संसार में जयघोषणा कर सुयश प्रकट करती है।