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________________ . . . . . . .............. १६४ स्वरूप-दर्शन स्वर्ण मोहरों के अतिरिक्त दिये जाने वाले अन्य दान की व्यवस्था तीर्थकर भगवान के पिता अथवा अग्रज द्वारा होती है। तीर्थंकरों के निष्कमण समय वरवरिका की घोषणा की जाती है। वरवरिका यानी "वर याचवं"-"वर याचो, वर याचो" इस प्रकार की जाने वाली घोषणा को सामयिक परिभाषा से “वरवरिक" कहते हैं। इस घोषणा से याचकों को यथेच्छ दान दिया जाता है। ज्ञातासूत्र एवं कुछ चरित्रों के अनुसार अरिहंत परमात्मा द्वारा दिया जाने वाला यह दान सनाथों को, अनाथों को, पन्थिकों को, पथिकों को, खप्परधारियों को, भिक्षुओं . को दिया जाता है। __ आवश्यक सूत्र की वृत्ति में कहा है कि यह दान चारों निकाय के देव-दानव-मानव तथा उपलक्षण से इन्द्र भी ग्रहण करते हैं। ज्ञाता सूत्र की टीका तथा उपदेश प्रसाद आदि ग्रन्थों के अनुसार यह दान चौंसठ इन्द्र, चक्रवर्ती राजा, श्रेष्ठी आदि सर्व इसे ग्रहण करते हैं एवं उनके भिन्न-भिन्न शुभ . परिणाम भी होते हैं। जैसे चौंसठ इन्द्रों में तथा देवों में १२ वर्ष तक विग्रह नहीं होता . है। चक्रवर्ती आदि राजाओं के भंडार अक्षुण्ण रहते हैं। श्रेष्ठी आदि लोगों के यश, कीर्ति एवं मान की वृद्धि होती है। रोगी का पुराना रोग समाप्त होता है एवं १२ वर्ष तक नया रोग नहीं होता है। चाहे जो कोई भी इसे ग्रहण करें परंतु इतना तो निर्विवाद है कि अभव्य तो इसे ग्रहण नहीं कर सकता है। अतः भव्यात्मा ही इसे. ग्रहण कर सकते हैं। संतोषी होने पर भी लोग जिनेश्वर भगवान के कर-कमल से गृहीत दान को बहुत महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली मानते हैं। __इस प्रसादी (शेष) से भंडार में लक्ष्मी की वृद्धि होगी। ऐसा मानकर अल्प मात्रा में ग्रहण करते हैं। कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि परमात्मा दीक्षा लेने वाले हैं, अतः इनके हाथों से प्रसाद रूप इस दान को ग्रहण कर लेना चाहिए। ऐसा होने से दान लेने वाले अल्प होते हैं अतः दान भी परिमित और संख्या वाला होता है। महायोग के महापथ पर महाभिनिष्क्रमण सांवत्सरिक महादान स्वरूप अनुपम अजोड़ अनुकंपादान करने के पश्चात सर्वप्राणियों के समूह सम्बन्धी अभयदान देने की इच्छा वाले जगद्गुरु सर्वविरति स्वीकार करने के लिए उधत होते हैं। इस समय सर्व इन्द्र एवं भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी एवं वैमानिक देव देवियाँ अपने रूप, वेश एवं चिन्हों से युक्त होकर; १. आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति-पत्र-१३६; आवश्यक मलयगिरि वृत्ति-पत्र-२०३ -
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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