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________________ . . . . . . . . . . प्रव्रज्या कल्याणक १६३ ___सर्व अरिहंत स्वयं संबुद्ध होते हैं। गर्भावस्था में ही तीन ज्ञान से युक्त होते हैं। अतः वे अपने प्रव्रज्या-अवसर को भली-भाँति जानते हैं। उन्हें सावधान करने की आवश्यकता नहीं होती है। फिर भी लोकान्तिक देवों की यह प्रवृत्ति केवल उनकी परम्परा के पालन हेतु ही होती है। अतः लोकान्तिक देवों का संबोधन वस्तुतः अरिहंत परमात्मा के उत्पन्न वैराग्य की सराहना मात्र ही समझना चाहिए। सांवत्सरिक दान की व्यवस्था एवं विधि अरिहंत भगवान “मैं अभिनिष्कमण करूँगा" ऐसा निर्णय करते हैं। उस समय विचलित आसन से इन्द्र अरिहंत भगवान के अभिनिष्क्रमण का अवसर जानते हैं एवं ऐसा सोचते हैं कि दीक्षा के पूर्व अरिहंत एक वर्ष तक दान करते हैं। इसे मनोवांछित दान, वात्सरिक दान, सांवत्सरिक दान, महादान, वार्षिक दान या सांवत्सरिक महादान कहते हैं। यह दान प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख याने एक वर्ष में तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख (३८८,८000000) स्वर्णदीनारों का होता है। हम शक्र-देवेन्द्रों का यह त्रिकालवर्ती जीताचार (परम्परागत आचार) है कि अभिनिष्क्रमण हेतु तत्पर तीर्थंकर को (तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख अर्थ संपत्ति-स्वर्ण दीनारें) पहुंचायी जायं। आगमादि के अनुसार तो इसी समय अर्थात् आसन चलायमान होते ही तुरन्त शक्रेन्द्र वैश्रमण देवों द्वारा इसकी व्यवस्था करते हैं। वर्ष भर तक प्रतिदिन नियमानुसार इनमें से उपयोग किया जाता है। परन्तु विनयचन्द्रसूरि ने मल्लिनाथ चरित्र में कहा हैयथोक्त दान की प्रतिदिन की व्यवस्था प्रतिदिन की जाती है। देवों द्वारा की जाने वाली इस व्यवस्था में उपयोगी धन देवों द्वारा विकुर्वित नहीं होता है परन्तु वे ऐसा निधान लाते हैं जिस पर किसी का स्वामित्व न हो, जो कुलनाश के कारण अधिकार विहीन हो, जो श्मशानों में हो, पर्वतों में हो, बिना चिन्ह का हो, अटवी या अरण्य में हो, शून्यगृह या नगरी में तथा अन्यान्य किसी स्थान में हो-वे दान हेतु इसे एकत्रित कर तीर्थंकर के भंडार में पहुंचाते हैं। प्रतिदिन चलने वाली दान की यह विधि सूर्योदय से प्रारंभ होकर प्रातःकालीन भोजन काल तक चलती है। प्रातःकालीन भोजन के दो अर्थ होते हैं-जलपान (नाश्ता) और भोजन काल। जलपान का समय प्रथम प्रहर और भोजनकाल का अर्थ दो प्रहर पर्यन्त का माना जाता है। स्वर्णदीनारों के लिये आगम में हिरण्ण शब्द का प्रयोग हुआ है। अर्थोल्लेख से इसका द्रव्यधन, सुवर्ण, रजत, स्वर्ण एवं रजत के सिक्के आदि अर्थ होते हैं। ये दीनारें शक्रेन्द्र के आदेश से वैश्रमण देव, देव माया द्वारा आठ ही समय में निपजाकर तीर्थंकर के घर में भरते हैं तथा इस पर तीर्थंकर भगवान का एवं उनके माता पिता का नाम होता है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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