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________________ १६२ स्वरूप-दर्शन ____ अरिहंत परमात्मा जन्म से ही अनासक्त योगी होते हैं। बाल्यकाल, राज्य, विवाहादि परिस्थितियों में से गुजरने पर भी वे किसी भी प्रवृत्ति में आसक्त नहीं होते हैं। बिना अध्ययन के भी अनेक पूर्वजन्मों के संस्कारों के कारण वे विद्या में पारगामी एवं वर्चस्वी होते हैं, बालक होने पर भी दक्ष एवं स्थविरों की तरह प्रौढ़ बुद्धि वाले होते हैं। ___ क्रीड़ा में, राग से पराङ्मुख होते हैं, बाल्यावस्था के योग्य अनुचित चेष्टाओं से रहित होते हैं, जगत् में उत्कृष्ट ऐसे सौन्दर्य, भाग्य एवं सौभाग्य से सुशोभित होते हैं, स्पजन, परिवार के नेत्रों के आनंददाता होते हैं, प्रियंकर, प्रियालापी एवं द्वेषीजनों को भी प्रिय लगने वाले होते हैं। यौवन द्वारा घोतित होने पर भी जितेन्द्रिय एवं आत्मस्थिरता वाले होते हैं। बाहर से राग दर्शाने पर भी अंतर में प्रवालवत् विशुद्ध होते हैं, चक्रवर्तीत्व को प्राप्त करने पर भी सर्वथा अनासक्त होते हैं। दिगम्बर मान्यता के अनुसार जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, इन आठ कषायों का ही केवल उदय रह जाता है ऐसे सभी । अरिहंत अपनी आयु के प्रारम्भिक आठ वर्षों के बाद निसर्गतः आंशिक संयमशील हो जाते हैं। यद्यपि उनके भोगोपभोग की वस्तुओं की प्रचुरता, रहती है फिर भी उनकी उसमें कोई आसक्ति नहीं होती है। उनकी वृत्ति नियमित रहती है तथा असंख्यातगुणी निर्जरा का कारण होती है। लोकांतिक देवों का आगमन ___ अनासक्ति में ही जीवन व्यतीत करते हुए उचित एवं योग्य समय पर स्वज्ञान से ही स्वयं प्रव्रज्या का अवसर जान लेते हैं एवं दीक्षा के एक वर्ष पूर्व ही “एक वर्ष पश्चात् मैं अभिनिष्कमण करूँगा (प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा)" ऐसा निर्णय करते हैं। उनके इस प्रकार के निर्णय को ब्रह्म नामक पांचवें कल्प में स्थित लोकान्तिक देव आसन कम्प से यह जानते हैं कि हम लोकान्तिक देवों की ऐसी मर्यादा (प्रणालिका) है कि जब अरिहंत के निष्कम का अवसर आता है तब उन्हें सम्बोधन करना चाहिए। ऐसा सोचकर ये ईशानकोण में जाकर वैक्रिय समुद्घात से उत्तरवैक्रिय की विकुर्वणा कर अपने आत्म प्रदेशों को रत्नमय दण्डाकार रूप में बाहर निकालकर, उत्कृष्ट गति से, जहां अरिहंत भगवान विराजमान हों वहां आकर आकाश में अधर खड़े रहकर इस प्रकार कहते हैं-सर्व जगत् के जीवों के हितकारी हे अरिहंत ! आप तीर्थ की प्रवृत्ति करो। हे भगवान ! हे लोकनाथ ! आप दीक्षा अंगीकार करो। भव्यजीवों को समझाओ। चतुर्विध संघरूप धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करो, क्योंकि वह धर्म तीर्थ भव्यजीवों के लिए मुक्ति-प्राप्ति का कारण होने से निःश्रेयस्कर होगा। १. महापुराण-सर्ग-५३, श्लो. ३५
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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